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आखिर हम जाना कहाँ चाहते हैं ?—ड़ा श्याम गुप्त

drshyam jagaran blog
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आखिर हम जाना कहाँ चाहते हैं |

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दी |

क्या बनाकर रख दिया है आज विवाह संस्थाको ! एक मज़ाक, एक नाटक | वस्तुतः इसी को भारतीय शास्त्रों में असुरत्व, अनार्यत्व कहा गया है | तो यह तो होना ही था |

आखिर दाम्पत्य का क्या अर्थ है ? विवाह का अर्थ क्या है ? विशद रूप में दाम्पत्य-भाव का अर्थ है, दो विभिन्न भाव के तत्वों द्वारा  अपनी अपनी अपूर्णता सहित आपस में मिलकर पूर्णता व एकात्मकता प्राप्त करके विकास की ओर कदम बढाना। यह सृष्टि का विकास-भाव है । प्रथम सृष्टि का आविर्भाव ही प्रथम दाम्पत्य-भाव होने पर हुआ ।

शक्ति-उपनिषद का श्लोक है—  “स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत। सहैता वाना स। यथा स्त्रीन्पुन्मासो संपरिस्वक्तौ स। इयमेवात्मानं द्वेधा पातपत्तनः पतिश्च पत्नी चा भवताम। —अर्थात अकेला ब्रह्म रमण न कर सका, उसने अपने संयुक्त भाव-रूप को विभाज़ित किया और दोनों पति-पत्नी भाव को प्राप्त हुए।

यही प्रथम दम्पत्ति स्वयम्भू आदि-शिव व अनादि माया या शक्ति रूप है जिनसे समस्त सृष्टि का आविर्भाव हुआ। मानवी भाव में प्रथम दम्पत्ति मनु व शतरूपा हुए जो ब्रह्मा द्वारा स्वयम को स्त्री-पुरुष रूप में विभाज़ित करके उत्पन्न किये गये, जिनसे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति हुई। सृष्टि का प्रत्येक कण धनात्मक या ऋणात्मक ऊर्ज़ा वाला है, दोनों मिलकर पूर्ण होने पर ही, तत्व एवम यौगिक व पदार्थ की उत्पत्ति तथा विकास होता है।

मानव समाज के विकास के एक स्थल पर, जब संतान की आवश्यकता के साथ उसकी सुरक्षा की आवश्यकता हुई एवं यौन मर्यादा न होने से आचरणों के बुरे व विपरीत व्यक्तिगत व सामाजिक परिणाम हुए तो श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह संस्था रूपी मर्यादा स्थापित की ताकि प्राकृतिक काम संवेग की व्यक्तिगत संतुष्टि के साथ साथ स्त्री-पुरुष के आपसी सौहार्दिक सम्बन्ध एवं सामाजिक समन्वयता भी बने रहे |   यजु.१०/४५ में कथन है—

“एतावानेन पुरुषो यजात्मा प्रतीति।
विप्राः प्राहुस्तथा चैतद्यो भर्ता सांस्म्रतांगना ॥“

अर्थातपुरुष भी स्वयं अकेला पुरुष नहीं बनता अपितु पत्नी व संतान मिलकर ही पूर्ण

पुरुष बनता है। स्त्री के लिए भी यही सत्य है | अतः दाम्पत्य-भाव ही पुरुष को भी संपूर्ण करता है, स्त्री को भी ।

ऋषि कहता है—पुत्रिणा तद कुमारिणाविश्वमाव्यर्श्नुतः। उभा हिरण्यपेशक्षा ॥. ऋग्वेद ८/३१/६६७९ –इस प्रकार वे दोनों( सफ़ल दम्पति ) स्वर्णाभूषणों व गुणों ( धन पुत्रादि बैभव) से युक्त  होकर र्संतानों के साथ पूर्ण एश्वर्य व आयुष्य को प्राप्त करते हैं।  एवम—८/३१/६६७९— “वीतिहोत्रा क्रत्द्वया यशस्यान्ताम्रतण्यकम”—देवों की उपासना करके अन्त में अमृतत्व प्राप्त करते हैं।

इस प्रकार सफ़ल दाम्पत्य का प्रभाव व उपलब्धियां ही हैं जो मानव को जीवन के लक्ष्य तक ले जाती है।

यदि स्त्री-स्त्री या पुरुष-पुरुष विवाह किसी भी दृष्टिकोण से उचित होता तो आखिर क्यों दाम्पत्य भाव या स्त्री-पुरुष विवाह की आवश्यकता होती एवं यह प्रथा अस्तित्व में आती | जिसे जैसी मर्जी को रहे, क्या अंतर पड़ता है, व्यक्ति को, समाज को, सभ्यता को, मानवता को, विकास को | हाँ विकास के लिए धनात्मक व ऋणात्मक समवाय की आवश्यकता होती है , चाहे वह प्राणी-जगत का विकास हो या जड़ जगत का |

तो स्त्री-स्त्री, पुरुष-पुरुष अर्थात समलैंगिक संबंधों में कोइ भी विकास की संभावना कहाँ है | क्या हम जड़ समाज की स्थापना करना चाहते हैं विकासहीन समाज की एक स्थिर सभ्यता-संस्कृति की –जहां ठहरा हुआ जल कीचढ़ एवं लिज़लिज़े कृमि-कीट ही उत्पन्न कर सकता है |

आखिर हम जाना कहाँ चाहते हैं ?

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