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भारतवासी व कुम्भ मेला (कविता)

drshyam jagaran blog
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आज बहुत दिन बाद आया हूँ , बाहर टूर पर।
कुम्भ मेला, प्रयाग घाट,
प्रयाग और मेला ;
भारतीय संस्कृति के अटूट अंग|
कहाँ जारहे हैं ये सब,
कहाँ से आरहे हैं ये सब?
सिर घुटाये,अन्गौंछा डाले,
हाथ में दंड
नंगे पाँव, परिव्राज़क की तरह |

एक समुद्र जैसे, चारों और से उठकर समा जाता है,
सागर में, संगम में, और-
पुनः उसी में से निकलकर
फ़ैल जाता है चारों ओर जैसे-
” एको s हं बहुस्याम “,
एक ही ब्रह्म से सारा संसार निकलता है ,
पुनः उसी में समा जाता है ।
जहां मिला बैठ गए,
जो मिला खाया पीया,
जो मिला पहन लिया ।

घास पर, जमीन पर,
रेल की पटरी पर,
विश्राम करते हुए, या-
सुबह से शाम तक
प्लेटफार्म पर,
गाडी का इंतज़ार करते हुए,
बाल, वृद्ध , युवा, महिलाएं;
कोइ जल्दी नहीं ,हडबड़ाहट नहीं
जब गाडी आयेगी चले जायेंगे ।

धैर्य की, संतोष की
साक्षात मूर्ति की तरह,
अपनी स्थिति से संतुष्ट,
स्थितिप्रज्ञ, वीत रागी,
साधू संतों की तरह ,
अपने में मस्त ग्राम्य वासी,
यही है भारत, भारतवासी ।

इसीलिये कहा जाता है,
भारत साधू संतों का देश है,
यहाँ हर व्यक्ति साधु वेश है ।

यही है वास्तविकता,
भारतीय जीवन की
संस्कृति की |
एक जन-ज्वार, बिना बुलाये,
देश के कोने कोने से ,
आया, रहा, चला गया,
न कोई भाषण बाज़ी, न शोर,
न झगड़ा न टंटा ।

जबकि,
आज का चार अक्षर पढ़ा युवक
चार क्षात्र, स्कूली लडके या
नेता एकत्र हुए,
हो गया घमासान, तोड़फोड़
शोर-शराबा, नारे-बाज़ी,
बिखरी मानसिकता,
विकृत संस्कृति,
प्रतिगामी समाज,
यही है तस्वीर आज॥

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