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माँ ,जननी ,माता ,बच्चों को प्यार करने .वाली से बढ़कर कोई है ?

सच्चाई का आइना
सच्चाई का आइना
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सामने की दीवार पर मां की तस्वीर टंगी थी। वही प्रभावशाली और ममतामयी आकृति, जिसकी गोद में बैठकर मैंने बहुत कुछ सीखा था। स्नेह से लबालब भरी प्रभावशाली आंखें जैसे सामने वाले को अपने पास बुला रही हों। हल्के से खुले होठों को देखकर लगता, जैसे वह अभी कुछ कहने वाली हों। चांदी से श्वेत केश, करीने से चोटी में बंधे हुए उनकी अनुशासनप्रियता का संकेत दे रहे थे। दूसरी तरफ चेहरे पर कहीं-कहीं बिखरी केश राशि यह संकेत भी दे रही थी कि आवश्यकता पड़ने पर वे अपने परिजनों के सुख के लिए उस अनुशासन में कुछ ढील देने में भी संकोच नहीं करतीं। सफेद साड़ी में उनकी सौम्य आकृति और भी अधिक उभर कर बड़ी प्रभावशाली लग रही थी। उन्हें गुलाब के फूल सदैव प्रिय रहे। उन्हीं गुलाब के फूलों की माला अब उनके गुलाब की तरह मुस्कराते चित्र पर टंगी हुई अपने चारों ओर खुशबू बिखेर रही थी।
गुलाब की खुशबू की तरह मां का व्यवहार भी बड़ा आकर्षक था। शरीर में सामथ्र्य न होते हुए भी वे हर अतिथि का खड़े होकर स्वागत करतीं और अपनत्व भरे शब्दों से उससे वार्तालाप करतीं। अंतिम समय तक उनके व्यवहार की यह मधुरता बनी रही। पूरी तरह उठ नहीं पातीं तो भी स्वागत में उठने का प्रयत्न जरूर करतीं और फिर चेहरे पर अपनी विवशता व्यक्त करते हुए वापस चारपाई पर लेट जातीं। आस-पास के सभी लोग उन्हें ‘देवी मां’ के नाम से पुकारते थे और उसी रूप में उन्हें सम्मान देते थे। उनका यह देवी रूप मां के चित्र में पूरी तरह झलक रहा था। चित्र को देखकर लग रहा था जैसे मां अब घर और बाहर सब स्थानों से सिमट कर यहां इस चित्र में ही समाहित हो गई हों। मां सचमुच मां थी, देवी-मां थी।
कुछ देर तक मैं अपलक मां के चित्र की ओर देखता रहा। फिर नजरें चित्र से हटकर कमरे में इधर-उधर भटकने लगी। सब कुछ वैसा ही था, जैसा मां के जीवित होने पर था। उनका कमरा वैसा ही करीने से सजा था। कमरे में अधिक सामान नहीं था। बस एक अदद चारपाई, कुछ सफेद साडियां, दीवारों पर टंगे हुए धार्मिक चित्र, एक अलमारी में भगवान का छोटा-सा मंदिर और वहीं एक ओर रखी गीता की प्रति। यह सब वैसे ही रखे थे, जैसा उन्होंने खुद अपने हाथ से रखा था। नहीं था तो केवल वह हाथ, जो ऎसे उदास क्षणों में मुझे प्यार से सहलाता और फिर पूछता, ‘क्या बात है बेटे, इतना उदास क्यों हो रहा है?’
मेरी नजरें भटकती हुई फिर चित्र पर आ थमीं। चित्र केवल चेहरे का था। हल्के से कंधे भी नजर आ रहे थे। हाथ तो उसमें थे ही नहीं। बड़ा क्रोध आया मुझे, अपने आप पर। जिस दिन मैं फोटोग्राफर के पास मां को ले गया था, उस दिन फोटोग्राफर ने मुझे बहुत कहा था कि मैं मां का एक आदमकद चित्र भी खिंचवा लूं। मगर मैंने ही उसे मना कर दिया था। उस समय मुझे आदमकद चित्र अनावश्यक और व्यर्थ लगा। अगर आज वह आदमकद चित्र मेरे पास होता तो उसमें मां के हाथ भी होते। तब मैं उन्हें छूकर शायद मां से अधिक निकटता महसूस कर पाता।
पिछले बारह दिन तक घर में काफी शोरगुल रहा। लगभग सभी मित्र-परिजन मां की मृत्यु पर शोक व्यक्त करने के लिए आए थे। ऎसे भी परिजन औपचारिकता के नाते आए थे, जिन्होंने मां से भरपूर लाभ उठाया था, मगर कभी उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ करने की भी आवश्यकता नहीं समझी। मां अपने अंतिम क्षणों में भी उन परिजनों को स्मरण करतीं रहीं। उनकी खुली पलकें अंतिम क्षण तक उनकी प्रतीक्षा करती रहीं। शायद यही सृष्टि का नियम है। स्वार्थ पूरा होने के बाद कौन किसको पूछता है। मैं मन ही मन बुदबुदाया और फिर कमरे के सूनेपन में खो गया।
मुझे याद आया, जब मैं अपनी नौकरी के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए मां से कहीं दूर चला गया था। वहीं मुझे मां की बीमारी का तार मिला। किसी पड़ोसी ने भेजा था, ‘मां सख्त बीमार है। शीघ्र आ जाओ।’ तार पाकर मैं बहुत घबराया। एकदम वहां से चल दिया। दफ्तर से छुट्टी लेने की औपचारिकता भी नहीं निभा पाया। इससे बाद में कुछ कठिनाई भी आई, मगर मैंने उन सब बातों की कोई परवाह नहीं की। घर पहुंचा तो पता चला कि मां अस्पताल में है। मेरी घबराहट और बढ़ गई। अस्पताल पहुंचा, तो मां सो रही थी। मां को देखकर मैं अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख पाया। आंसुओं का रोका हुआ बांध जोरों से फूट पड़ा। शायद मेरे रोने की आवाज से ही मां जागी और आश्चर्य से मुझे देखते हुए अपने सीने से लगा लिया। फिर बोली, ‘अरे-अरे रोता क्यों है? मैं तो बिलकुल ठीक हूं। मैं तुझे कोई इस तरह अकेला छोड़कर थोड़े ही जाऊंगी।’ मां के सीने से लगकर आंसुओं का वेग थम गया। शायद दिल में छुपे इस डर ने ही मुझे रूला दिया कि अगर मां नहीं रही तो क्या होगा।
उस दिन मां की मृत्यु के डर ने ही रूला दिया था, पर अब वास्तव में मां की मृत्यु हो जाने पर भी आंखें सूखीं थीं। उनमें शायद उदासी तो थी, पर आंसू नहीं। अंतिम क्षणों में जब मां तड़प रही थीं और उन्हें किसी भी तरह चैन नहीं मिल रहा था, तब खुद ईश्वर से प्रार्थना की थी कि वह मां को स्वस्थ कर दे या शीघ्र उठा ले। मेरे एक मित्र ने किसी मंत्र की चर्चा करते हुए कहा था कि उसका पाठ करने से मां को शांति प्राप्त होगी। यदि उन्हें स्वस्थ होना है तो स्वस्थ हो जाएंगी और यदि धरती से जाना है तो इस मंत्र के प्रभाव से वे शांति से चली जाएंगी। तब मैंने मां की मृत्यु की चिंता किए बिना उस मंत्र का पाठ करवा दिया था। पता नहीं उस मंत्र का कोई प्रभाव हुआ या नहीं। मगर ऎसा मैं कैसे कर पाया? मैंने अपने आपको लताड़ा।
पिछले बारह दिनों में तो मां की मुझे ठीक तरह से याद भी नहीं आई। शायद उसके लिए समय ही नहीं मिला। कर्मकांड करते समय अवश्य ही मां की याद ने झिंझोड़ा। कभी-कभी मेरी आंखें नम भी हो गईं। पर शेष समय तो मैं निरंतर काम में ही व्यस्त रहा। मेहमानों की आवभगत, कर्मकांड और द्वादशा के श्राद्ध की तैयारी में ही इतना व्यस्त रहा कि मुझे मां की तस्वीर की ओर देखने तक की फुरसत नहीं मिली। आज जब सभी मेहमान विदा हो गए, बच्चे अपने स्कूल चले गए और पत्नी घर के बिखरे सामान को व्यवस्थित करने में लग गई, तभी मुझे यहां मां के कमरे में आने का वक्त मिला।
मां ने सच ही कहा था कि वह मुझे अकेला छोड़कर नहीं जा सकती। उस समय मैं अकेला था, इसलिए बीमार होने के बावजूद वह मुझे छोड़कर नहीं गईं। अब मैं अकेला नहीं हूं। घर में पत्नी है, बच्चे हैं और वह सब कुछ है, जो सुखी जीवन के लिए जरूरी हो सकते हैं। मुझे खुशहाल स्थिति में छोड़कर ही मां इस संसार से जा सकी है। उस समय मुझे मां की जरूरत थी। अब शायद ऎसा भी नहीं है। तब मां ही मेरे पास रहकर क्या करतीं? अपने इस विचार से मन फिर आत्मग्लानि से भर गया।
अचानक ही चिडिया के चहकने की आवाज सुनाई दी। मैंने सिर उठाकर देखा तो मां की चारपाई के ठीक ऊपर बनी अलमारी में एक चिडिया बैठी मेरी ओर ताक रही थी। मैं चौंक पड़ा, ‘यह चिडिया कहां से आई? मां के कमरे की खिड़कियां तो बंद थीं।
शायद मुख्य दरवाजे से ही अंदर आई हो, पर बीच के दूसरे कमरों को पार करते हुए यहां अंदर इस कमरे में ही क्यों और कैसे आई?’ अचानक मन में विचार कौंधा- कहीं चिडिया की आकृति में यह मां ही तो नहीं। कर्मकांड के दिन हवन की मिट्टी को इकट्ठा करके रात्रि को उस पर एक दीपक जलाकर मुझे बतलाया गया था कि मां ने जिस योनि में भी जन्म लिया होगा, उसके पैरों के निशान इस मिट्टी पर आ जाएंगे। सुबह सचमुच ही उस पर किसी जंतु के निशान थे। उन निशानों को देखकर मुझे बताया गया कि मां ने किसी रेंगने वाले जीव के रूप में जन्म लिया है। मगर मैं उस बात पर विश्वास नहीं कर सका। कारण यह रहा कि रात्रि को मैंने खुद ने उस दीपक के आस-पास रोशनी के एक कीड़े को मिट्टी पर बार-बार बैठते और उड़ते देखा था। तब शायद मां ने इस चिडिया के रूप में ही जन्म लिया हो। इस विचार के साथ चिडिया की ओर ध्यान से देखा। वह भी बार-बार मेरी ओर देखती और फिर अपनी गर्दन घुमा लेती। उसने अपने मुंह से हल्की-सी आवाज भी निकाली। मगर देखने में चिडिया की आयु बारह दिन से काफी अधिक लग रही थी, इसलिए वह मां नहीं हो सकती।
मुझे अचानक ध्यान आया। मां जब खाना खाती थीं, तो खिड़कियों से अक्सर ही चिडिया उसके पास आ जाती थीं और मां अपने साथ उन्हें भी खाना देती थीं। बाहर से भी चिडियां का कलरव सुनाई देने लगा था। मैंने एक खिड़की खोल दी। उसमें से कई चिडियां एक साथ अंदर आ गईं और इधर-उधर ऊपर की तरफ बैठ गईं। मैं तत्काल रसोई में जाकर रोटी का एक टुकड़ा ले आया और उसके छोटे-छोटे टुकड़े करके जमीन पर बिखेरने लगा। चिडियां पहले कुछ सहमीं। फिर वे धीरे-धीरे नीचे जमीन पर आकर रोटी के टुकड़े खाने लगीं। अब उनका ध्यान चुग्गा डालने वाले की ओर नहीं था, केवल चुग्गे की ओर था।
आज वो माँ कंहा है आज कल सब मम्मी बन गई है माँ कहने से मुंह जैसे खाने से भरा हुआ है ऐसा लगता था I
मगर अब एकदम छोटा करके बोलने का रिवाज बन गया है मम्मी और माँ कहने मे कितना फर्क है आप खुद अंदाज लगा सकती हो I

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