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दुनिया बदलने का वक़्त

सच्चाई का आइना
सच्चाई का आइना
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दुबली कद-काठी की एक युवा लड़की नई दिल्ली में स्वर्णाभूषणों की एक दुकान से कुछ आभूषण खरीदने गई। आभूषण खरीदने की उसकी मंशा भी थी। उसने कीमत पर नजर दौड़ाई। वह यह भी जानती थी कि वह एक छोटी सी अंगूठी खरीदने में सक्षम है। उसने दुकानदार पर नजरें उठाते हुए पूछा, ‘सोने के दाम आकाश पर क्यों पहुंचते जा रहे हैं।’ दुकानदार उत्तर देता, इसके पहले ही मैंने अपना सर घुमाया और धीरे से कहा, ‘महोदया, इसकी वजह सट्टेबाजी है या इस पर केवल अनुमान लगाया जा सकता है।’
वह सोने की कीमतों के तेजी से उछलने के कारणों से नावाकिफ थी। वजह यह है कि बमुश्किल एक फीसदी निवेशकों को बड़ा लाभ कमाने वालों की श््रेणी में रखा जा सकता है, जबकि 99 प्रतिशत लोग गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। इसके सार तत्व को संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है, ‘हम उन 99 प्रतिशत लोगों में शामिल हैं,’ जो पूरे महाद्वीप में फैले हुए हैं। 82 देशों के 1500 शहरों में रहने वाले हजारों-लाखों लोग आर्थिक असमानता के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं, मुख्य चौराहों और सेन्ट्रल पार्क में प्रदर्शन कर रहे हैं। न्यू यॉर्क से यह मुहिम एक माह पहले शुरू हुई थी। विश्व की वित्तीय राजधानी से शुरू इस मूक प्रदर्शन की मुहिम देखते ही देखते जंगल की आग की तरह अब हर जगह फैल गई है।

आर्थिक असमानता के खिलाफ ‘आक्यूपॉय वॉल स्ट्रीट’ अभियान को हर जगह समर्थन मिला है। अमरीकी इसलिए नाराज हैं क्योंकि वर्ष 2009 की आर्थिक गिरावट के बाद बेल आउट पैकेज दिए गए थे, बैंकों को अब उससे भारी लाभ कमाने की अनुमति दे दी गई है। जबकि एक औसत अमरीकी का वित्तीय संकट से जूझना जारी है। अपनी अर्थव्यवस्था को धराशायी होने से बचाने के लिए विभिन्न देशों की सरकारों ने, इसमें भारत भी शामिल है, ने लगभग 20 ट्रिलियन डॉलर की सहायता उड़ेली थी। इस वित्तीय संकट के लिए जो देश प्रारम्भिक रूप से जिम्मेदार थे, उन्हें बोनस की मोटी राशि के चेकों से नवाजा गया। मैं पहले भी कह चुका हूं कि आर्थिक ढांचे के तंत्र को इस तरह डिजायन किया गया है कि लाभ के निजीकरण को बढ़ावा मिलता रहे और कीमतों का समाजीकरण होता रहे।

जरा, इस ओर गौर फरमाइए, अमरीका में धनाढय वर्ग और औसत नगारिक के बीच का फर्क राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के काल से गहराता जा रहा है। रोनाल्ड रीगन ने टैक्स कटौती शुरू की थी। इसे रीगन टैक्स कटौती कहा गया। इस नीति में घर लेने के वास्ते लोगों को सक्षम बनाना था। कहना न होगा कि अधिकतम टैक्स दर घटकर काफी नीचे तक आ गई थी।

कोई आश्चर्य नहीं, एक फीसदी अमरीकी 42 प्रतिशत सम्पदा पर कब्जा किए बैठे हैं, जबकि 80 फीसदी आबादी सिर्फ सात प्रतिशत धन-दौलत पर निर्भर रहने को मजबूर है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो 20 फीसदी अमरीकियों ने 93 प्रतिशत सम्पदा हथिया ली है। विडम्बना तो यह है कि अमरीका विश्व का सबसे धनी देश है। यहां गरीबी ने 52 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है, 15.1 प्रतिशत आबादी गरीबी में जीवन-यापन करने को मजबूर है। भूख ने सभी रेखाएं पार कर दी हैं। छह में से एक व्यक्ति खाद्य आपूर्ति के लिए कतार में खड़ा है।

2009 की आर्थिक गिरावट और 1930 के दशक की महामंदी में सुस्पष्ट समानताएं दिखती हैं। 1929 में अमरीका के एक फीसदी शीर्षस्थ लोग 60 फीसद राष्ट्रीय आय पर कब्जा जमाए बैठे थे। अस्सी साल बाद हमें आय में असमानता साफ तौर पर दृष्टिगोचर होती है। आज शीर्ष पर बैठे दस फीसदी अमरीकी आय के 90 फीसदी हिस्से पर नियंत्रण रखे हुए हैं। अब यह समय सोचने-समझने का है कि हमारी आर्थिक नीतियों में दुखांतिक रूप से कुछ गलत हो रहा है। लेकिन यह एक ऎसा विस्तार है और नीति-निर्माताओं, शिक्षाविद्ों और मीडिया पर कॉरपोरेट ताकतों का ऎसा नियंत्रण कि बदलाव की कोई भी आवाज या चिल्लाहट परिहास में बदल जाती है।

भारत में तो गरीब और अमीर के बीच का अंतर 90,000 गुना से भी अधिक हो गया है। विश्वास किया जाता है कि शीर्षस्थ 50 परिवार आर्थिक सम्पदा पर नियंत्रण जमाए बैठे हैं जो देश के एक ट्रिलियन डॉलर का एक तिहाई, साथ में जीडीपी के बराबर है। यदि ये परिवार दूसरे देशों में जाकर बस जाते हैं तो भारत की आर्थिक सम्पन्नता तेजी से ढह जाएगी। एक व्याख्या के अनुसार जिनके पास एक मिलियन डॉलर या अधिक की विनिवेश करने योग्य सम्पत्ति है, उनकी धन-दौलत 2009 में 1,26,700 मिलियन डॉलर के मुकाबले वर्ष 2010 में 20.8 प्रतिशत तक की वृद्धि होकर 1,53,000 मिलियन डॉलर हो गई है।

ठीक इसी दौरान, संयुक्त राष्ट्र के आकलन के अनुसार भारत में 456 मिलियन लोग रोजाना 1.25 डॉलर से भी कम पर जीवन-यापन करने को मजबूर हैं। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के ग्लोबल हंगर इंडैक्स-2010 के अनुसार भारत को विश्व के 81 देशों में 67वें स्थान पर रखा गया है।

वर्ष 2004 के बाद के सालों में सरकार ने 22 लाख करोड़ रूपए से अधिक कॉरपोरेट और व्यापारिक घरानों को कर माफी के जरिए बांटे हैं। यह राशि लगभग दो सालाना बजटों के प्रावधानों के बराबर है।

इतनी उदारता से तो नागरिकों, उद्योगों को नीचे से उठाकर ऊपर लाया जा सकता था, लोगों की धन-दौलत बढ़ाने में मदद की जा सकती थी। ‘आक्यूपॉय वाल स्ट्रीट’ अभियान जन नीतियों के खिलाफ अभिव्यक्ति है, उन धनियों के खिलाफ भी जो लोकतंत्र को निजी क्लब की तरह चलाते हैं। कई अर्थो में यह अभियान महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह की तरह है। मुठ्ठीभर समर्थकों द्वारा शुरू यह अभियान आज तूफान हो चला है और अरब सागर के तट तक पहुंच रहा है।

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