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राष्‍ट्रमंडल खेलों में गौ माताओं की क़ुरबानी ………….

सच्चाई का आइना
सच्चाई का आइना
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दिल्ली में राष्‍ट्रमंडल खेल हुए है. खेल के पहले भ्रष्टाचार के तरह-तरह के जो महान खेल हो रहे है, उनसे पूरा देश परिचित हो चुका है. लेकिन एक नया तथ्य यह सामने आया है कि राष्ट्रकुल खेलों में शामिल होने आ रहे अनेक विदेशी खिलाडियों के स्वागत में हमारी गौ माताए भी अपनी कुर्बानियां दी है . विदेशी खिलाडियों का कहना है कि हमें गो-माँस चाहिए. अगर गो माँस नहीं मिलेगा तो हम शामिल नहीं होंगे. यह एक तरह से ब्लैकमेल है किसी देश के साथ. ऐसे देश के साथ जो अहिंसा का पुजारी है. जहाँ के राष्ट्रपिता की जयन्ती पूरी दुनिया में ”अहिंसा दिवस” के रूप में मनाई जाती है. ऐसे महान देश से कोई यह कहे कि ”हमें गो माँस खिलाओ, वर्ना हम तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार नहीं करेंगे”, तो यह सोचनीय बात है.

कोई देश यह कहने की हिम्मत कैसे कर सकता है कि हम तुम्हारे देश में आ कर गो माँस खायेंगे? इसके पीछे कारण साफ़ है. दरअसल जिस तेजी के साथ भारत गो-मांस का निर्यात कर रहा है, उसे देख कर अनेक देश यह अंदाज़ा लगा रहे है, कि अब भारत अहिंसक-भारत नहीं रहा. यह नैतिकता, करुणा, अहिंसा, मानवता, जीवन-मूल्य इन सबकी रोज ही तो हत्याएं होती रहती है. गाय को जो देश माता कहता है. जहाँ के भगवान् (कृष्ण) गायों के दीवाने थे, वह देश आज दुनिया का सबसे बड़ा माँस-निर्यातक बना बैठा है, उस देश में आने वाले खिलाड़ी या लोग गो माँस की ख्वाहिश करते हैं, तो गलत नहीं करते. यह इस देश का संस्कृतिक पतन नहीं है तो और क्या है कि हम इस बात के लिये तैयार हो जाएँ कि ‘आओ, अतिथि, तुम्हारा स्वागत है. हम तुम्हे गायें परोसेंगे’. गायें ही क्यों, बकरे-बकरियां, मुर्गे, खरगोश और न जाने कितने ही पशु-पक्षी इन खेलों के कारण जान गवां देंगे. दिल्ली की यमुना नदी में निरीह जानवरों का कितना खून बहेगा, इसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते.

आज भारत के अनेक राज्यों में कसाईखाने चल रहे है. इस कारण वहां की नदियाँ, वहां का वातावरण प्रदूषित होता जा रहा है. लोग विरोध करते है,लेकिन उनकी सुनवाई नहीं होती. यह वही दिल्ली है, जहाँ चालीस साल पहले अनेक गो भक्त गोलियों से भून दिए गाये थे. गो भक्तों की यही माँग थी कि देश में गो हत्या पर रोक लगे. कसाईखाने बंद हो. गो भक्तों की मांगें तो पूरी नहीं हुई, अलबत्ता उनकी ह्त्या कर दी गई .

अजब देश है यह. कई बार मुझे लगता है, कि इस देश में गुलामी जस की तस है. केवलसत्ता का हस्तांतरण हुआ है. अँगरेज़ चले गाये, अब भारतीय राज कर रहे है. आज भी अंगरेजों के दौर का दमन-चक्र चल; रहा है. अगर ऐसे नहीं है तो क्यों प्रदर्शनकारियों पर लाठी-गोलियाँ चलती हैं? क्यों? अपनी जायज मांगो के लिये सडकों पर उतारने वालों के साथ नाजायज और शर्मनाक व्यवहार होता है. पता नहीं कब वह सरकार आयेगी जो गोली नहीं, बोली से काम लेगी. राष्ट्रकुल खेलों के दौरान गाये कटेंगी, इस मुद्देको लेकर अगर लोग सडकों पर प्रदर्शन करने के लिये उतार जायेंगे तो कोई बड़ी बात नहीं कि लोगो को भून दिया जाये. तर्क यही दिया जाएगा,कि देश की इज्ज़त का सवाल था. और हजारों निरीह पशु काटेंगे, राष्ट्रमाता गायें कटेंगी, उससे देश की अस्मिता को झटका नही लगेगा? दरअसल गाय का सवाल हमारी प्राथमिकता में है ही नहीं, जबकि अनेक शोधों से यह स्पष्ट हो गया है कि गाय की ह्त्या से भूकंप के झटके भी आते है. गाय हमारे अर्थ-तंत्रा की रीढ़ है. ग्रामीन अर्थ व्यवस्था इसी से चलती रही है, आज भी चल रही है,लेकिन अब हमारी सरकारों का गाय से मोह भंग हो गया है, इसीलिए वह ट्रैक्टरों की खरीदी कोप्रोत्साहित कर रही है. बैल बेकार हो रहे है. इसलिए लोग उसे कसाईयों को बेच देते है. हम धीरे-धीरे भयंकर किस्म के निर्मम होते जा रहे है. हमारी काया तो इंसानों जैसी है, पर भीतर एक हैवान जगा हुआ है. यही कारण है कि जब गे को बचने का सवाल आता है, या जीव हत्या के विरोध में बाते की जाती है तो तथाकथित विकसित लोग चिढ़ जाते है. ये अमानुष लोग माँस के इतने प्रेमी होते है, कि यह सोच कर ही सिहर उठते है, कि अगर गो माँस नहीं मिला, अगर दूसरे किसी जानवर का माँस नहीं मिला तो जीवन किताना निस्सार हो जाएगा. मुझे तो लगता है, कि राष्ट्रकुल खेलों में गायें न कटे, इस बात को लेकर देश में कोई बड़ा आन्दोलन नहीं होगा. यह देश धीरे-धीरे मुर्दों का देश बनता जा रहा है. विरोध के नाम पर यह ज़रूर होगा कि कि कुछ लोग मुख्यमंत्री से मिलें या प्रधानमंत्री से मिल लेन खानापूर्ति हो जायेगी, बस. जबकि होना यही चाहिए, कि पूरा देश उठ खडा हो, गाय की ह्त्या नहीं होगी.शर्त यही होनी चाहिए. अगर गो ह्त्या ही शर्त हो तो आयोजन ही रद्द कर दिया जाये. कहीं तो हम अपने भारतीय होने का सबूत दे. बातें दुनिया को, कि हमारे लिये गाय केवल पशु नहीं है, वह हमारी माँ है. हमारे अर्थ-तंत्र की रीढ़ है. लेकिन ऐसा शायद होने से रहे. क्योंकि अब अपना देश मूल्यों वाला देश नहीं रह गयाहै. यहाँ शराब से पैसे कमाने की छूट है, माँस का निर्यात करके डालर-अर्जन की छूट है. देश व्यापार को मान्यता है. समलैंगिक संबंधों को स्वीकृति है. लिव-इन-रिलेशनशिप की कानूनन बल्ले-बल्ले है. तो जो देश इतनी तेज़ी के साथ ”आधुनिक” होने पर तुला है, वहा अगर गायें कट रही है, तो कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन एक बात तय है कि अगर गो हत्याएं नहीं रुकी तो यह बात तय है कि भविष्य मे प्राकृतिक तबाहियों को हम रोक नहीं पायेगे.

दिल्ली के ही तीन वैज्ञानिको के शोध को दुनिया ने मान्यता दी थी, जिसमे उन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि गायों की अनवरत हत्याओं के कारण भूकंप आ रहे है. अन्य प्राकृतिक आपदाएं झेल रहे हैं हम लोग. इसे ”बिस थ्योरी” कहा गयाथा. आज भी दिल्ली में रोज़ हजारों गाये, कटती है. वहां के कसैखाने से बहाने वाला खून यमुनानदी को प्रदूषित कर रहा है. ऐसे में क्या फर्क पड़ता है, कि राष्ट्रकुल खेलों के दौरान कुछ और गायें कट जाएँ. शर्म तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को आनी ही चाहिए, कि उनके रहते दिल्ली में गाये कट रही है. रोज कट रही है. अब खेल आयोजन के दौरान बेहिसाब कटेंगी. हमें अपना पद प्यारा है. जीवन मूल्य नहीं. शीला दीक्षित चाहे तो रातोंरात मदर टेरेसा की तरह ख्याति प्राप्त कर सकती है. वे बस इतना साहस दिखाएँ, कि दिल्ली में गो हत्याएं नहीं होंगी. आदेश जारी कर दे. वे केंद्र से भी साफ़ कह दे कि ‘राष्ट्रकुल खेलों के दौरान हम गायें काटने नहीं देंगे’. लेकिन मेरी यह बात एक मुगालता है. एक भ्रम है. ऐसा होने से रहा. कुल मिला कर होगा यही कि बेहिसाब गायें कटेंगी. गौ माताऑं की चीखे, खेलों की हार-जीत के शोरों में दब जायेंगी. गो भक्त गोली खाने के डर से बाहर निकलेंगे भी नहीं. और यह देश हमेशा की तरह रिमोट पकडे खेल-आयोजन और विज्ञापन देखते हुए अपना यह कीमती समय भी यूं ही निकल देगा. जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा, जब नैतिकता, अहिंसा को बहिष्कृत कर दिया गया हो, तब गो ह्त्या पर रुदन कुछ लोगों को मध्य-युगीन मानसिक-प्रलाप से ज्यादा कुछ नहीं लगेगा भी नहीं.

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