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आज के खलनायक

निहितार्थ
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आज के खलनायक

ज़्यादातर हिंदी फ़िल्में एक पैटर्न में ढली होती हैं. सभी की कहानी लगभग एक जैसी ही होती है. एक नायक होता है और एक नायिका होती है.   नायिका किसी उद्यान में किसी पेड़ के चारों ओर दौड़ भाग और नाच गाना करती है नायक भी उसी शैली में उसका पीछा करता है. खलनायक / खलनायिका का प्रवेश होता है नायक-नायिका का खेल बिगाड़ने के लिए. फिल्म को रोचक बनाने के लिए यहीं मिर्च मसाले का भी समावेश किया जाता है. शुरू में नायक खलनायक के हाथों पिटता है. अंत में खलनायक की हार होती है और नायक-नायिका मिल जाते हैं. इस प्रकार असत्य पर सत्य की विजय होती है और फिल्म का पटाक्षेप होता है. मेरी समझ में हिंदी फिल्मों में खलनायक / खलनायिका की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. इनके ही सहारे फिल्म तीन घंटे चलती है. खलनायक की हरक़तें दर्शक को बांधे रहती है. अगर खलनायक / खलनायिका न हों तो फिल्म नीरस हो जायेगी. मुझे एक बार का वाकया याद आता है. हम पति पत्नी और मेरा छोटा भाई अखिलेश जो करीब 10 – 12 साल का था, पिक्चर देखने गए थे. सिनेमा हाल में ‘ आई मिलन की बेला ’ फिल्म  चल रही थी. फिल्म में राजेन्द्र कुमार नायक और धर्मेन्द्र खलनायक की भूमिका में थे. मेरा भाई खलनायक की हरक़तों से दुखी और उद्विग्न हो रहा था. जब नायक के हाथों खलनायक के पिटने का नंबर आया, तब क्या था, उसका सारा गुबार फूट निकला. वह उत्तेजित होकर अपनी सीट से उछल उछल कर शोर मचाने लगा मारो, और मारो. हमारे अगल बगल, आगे पीछे की सीटों पर बैठे दर्शक ऐतराज़ करने लगे थे. बड़ी मुश्किल से मैनें अपने भाई को शांत किया. फिल्म को रोचक बनाने में, उसको तीन घंटे तक खींचने में खलनायक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. चूँकि असत्य पर सत्य की बुराई पर अच्छाई विजय होनी ही है, इसलिए फिल्म के अंत में पिटना ही खलनायक की नियति होती है. पुरानी फिल्मों में खलनायक के तौर पर के एन सिंह, कन्हैया लाल, प्रेम नाथ, प्राण और बाद में प्रेम चोपड़ा, अमरीश पुरी कुछ जाने माने नाम थे. प्राण नें खलनायिकी के नए आयाम स्थापित किये. वे हिंदी फिमों के इतिहास में अमर रहेंगे. शत्रुघ्न सिन्हा नें खलनायक से मिलती जुलती जो बाद में सुधर जाता है, एंटी हीरो की भूमिका की स्थापना की. शत्रुघ्न सिन्हा कई बार नायक पर भारी पड़ते थे. ‘ अर्ध सत्य ‘ एक मील का पत्थर फिल्म थी. अर्ध सत्य में सदाशिव आमरापुरकर नें खलनायक की अविस्मरणीय भूमिका निभाई. फिल्म में कहीं कहीं वे नायक ओम पुरी से ज्यादा प्रभाव पैदा करते हैं.

लादेन ‘ जी ‘ के खास अनुयायी तथा आतंकवादियों के गढ़ आजमगढ़ के तीर्थयात्री दुर्विजय सिंह, मनहूस तिवारी का नाम प्रमुखता से लिया जाना चाहिए. इन सभी की अपनी अपनी विशेषताएं हैं, इनकी प्रतिभा का पता चला बाबा रामदेव के काला धन विरोधी और अन्ना हजारे के जनलोकपाल आन्दोलन के समय. इन्हें इनकी विशेषताओं के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है. कपिल मुनी और दिगंबरम महाशय को झूठ, धोखाधड़ी और कुटिल शातिर चालें चलने में विशेषज्ञता हासिल है. एयरपोर्ट जा कर बाबा रामदेव का ऐसा सम्मान किया गया जैसा राष्ट्राध्यक्षों का किया जाता है. एक षड्यंत्र के तहत उन्हें आश्वस्त किया कि उनकी सारी मांगें मान ली गई हैं. धोखे से बाबा से लिखित अंडरटेकिंग ले लिया कि चूंकि उनकी सारी मांगें मान ली गई हैं, बाबा अपना आन्दोलन वापस ले लेंगे. फिर सुबह होने का भी इंतज़ार नहीं किया गया. अपनी आसुरी शक्ति का प्रदर्शन करने, आतंक पैदा करने के लिए अर्धरात्रि को सोते हुए बाबा के अनुयायियों को पुलिस से पिटवा दिया. जलियानवाला बाग़ शैली में रामलीला मैदान में रावण लीला का मंचन किया गया. इस प्रकार बड़े यत्न स अर्जित कि गई बाबा की प्रतिष्ठा को धूल धूसरित कर दिया गया. क्या हिंदी फिल्मों का कोई खलनायक इनके मुकाबले में कभी ठहर सकता है. मिलता जुलता व्यवहार अन्ना के साथ किया गया. उनको ड्राफ्टिंग कमिटी में शामिल किया गया. बातों में उलझाये रखा गया. जब सर्वसम्मत ड्राफ्ट नहीं बन पाया तब कहा गया कि सरकारी और जन लोकपाल बिल दोनों संसद पेश किये जायेंगे. धोखे से जन लोकपाल बिल को बाहर रखकर सरकारी बिल पेश कर दिया गया. संसद द्वारा जन लोकपाल बिल पर विचार करने के लिए अन्ना को अनशन करना पड़ा. कपिल मुनि के दलाल स्वामी छद्मवेश वैसे तो अन्ना के साथ होने का दिखावा करते रहे, पीछे से उनकी जड़ खोदते रहे और अपने आका के लिए अन्ना के विरुद्ध जासूसी करते रहे. ढोंगी स्वामी छद्मवेश अन्ना की टीम के साथ होने का  नाटक करते रहे और उधर अपने मित्र कपिल मुनि को सलाह भी देते रहे  कि सरकार को झुकना नहीं चाहिए तथा अन्ना   के जन लोकपाल आन्दोलन  से सख्ती से निपटना चाहिए.  इसे ही कहते हैं ‘ चोर से कह दो चोरी करे, साहूकार से कह दो जागता रहे   ‘.   

ये नक्सलवादी, माओवादी आतंकवादियों के हमदर्द है. मनहूस तिवारी अन्ना को पहले तो भ्रष्ट बताते हैं और बाद में खेद जताते हैं. इनकी पहचान है इनके चेहरे पर हमेशा 12 बजा रहना. हमेशा गुस्से में नज़र आते हैं    हमेशा टेंस नज़र आते हैं. जब कभी  टी वी चैनलों पर डिबेट में शामिल  होते हैं तो इतने उत्तेजित हो जाते हैं मानो किसी पर हाथ उठा बैठेंगे.  इनकी शारीरिक संरचना,   भावों का प्रकटीकरण, आचरण और व्यवहार एक सफल खलनायक  के सर्वथा अनुकूल है. दुर्विजय सिंह की कारगुजारियों से पूरा देश परिचित है. यह लेख अधूरा ही रहेगा यदि खलनायिका के तौर पर सबको धता बताने वाली ‘ धती राय ‘ का ज़िक्र न किया जाय. जहां कहीं भी माओवादी, आतंकवादी, विघटनकारी, राष्ट्रविरोधी ताक़तें होती हैं, ये उनके पक्ष में खड़ी नज़र आती हैं आज के नए खलनायक खलनायिकी के सारे कीर्तिमान तोड़ने को तत्पर हैं. खलनायक प्रधान फिल्म के लिए एक अच्छा प्लाट उपस्थित है.

पुनश्च : मेरे द्वारा उल्लिखित फिल्म ‘ आई मिलन की बेला ‘ थी न कि ‘ गूंज उठी शहनाई ‘ जैसा कि मैनें लिखा था. त्रुटि की ओर इंगित करने के लिए मैं श्री आर एन शाही जी का अत्यंत आभारी हूँ.भूल सुधार कर लिया गया है.

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