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आज अचानक तन्हाई मुझसे आकर लिपट गयी
मैं अकेली, ख़ामोश, बंध उस पल में सिमट गयी
उसके चले जाने से
सोचा था
कुछ फ़र्क़ पड़ेगा
लेकिन
दूरियां बढ़ती चली गयी
और मैं
गुमसुम, स्तब्ध बिना शब्द के
पूरी रात करवट बदलती चली गयी
एक तरफा
चमकते तारे को घने काले बादल में देख
हैरान हो जाती
इतना अंधेरा पन हज़ारो मील ऊपर
फिर भी टिमटिमाने में कोई कसर नहीं
कोई कुछ बोले उसका कोई असर नहीं
जगमगाना फितरत हो गयी
वही दूसरी ओर
मैं परेशान इस रोज़ मर्रा की उठा पटक में
तरह तरह के लोग,
और उनके
अपने ही बुने हुये रोग
है तो जीवित लेकिन पीड़ित
उनकी सोच , विचारधारा
उनके ज़हर वाले उगलते सवाल
झिंझोर कर,
कर रहे हैं मेरी ज़िन्दगी में बवाल
कोई समझ नहीं सकता
सोचती हूँ कही दूर चली जाऊ
ठीक उन तारों की तरह
पूरी रात टिमटिमाऊ
पर यह ज़िन्दगी
सिर्फ मेरी ही नहीं
मुझसे उत्पन्न
वो दीप वो आशा
देती मुझे दिलासा
हैं कुछ स्वर जो मुझसे मिलते है
बेजाँ पड़ी ज़िन्दगी में फूल खिलते है
उन्ही को सोच के कभी मुस्कुरा लेती हूँ
दो चार पुराने गीत गुनगुना लेती हूँ
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