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संस्कारों मे टूटती नारी

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दुखती-झुकती कमर,

ढलता शरीर,
खोती जवानी।
सलाहा डाक्टर की,
बस ना झुको अब।
झुकते-झुकते,
कमर झुक गयी है,
कभी ना सीधी होने के लिये।
सीधे होने की,
अब कोई गुंजायश अंश नही।
सुनकर,
ठंडी और लॅबी, आह भरी,
पहले हंसी, फिर रोई,
जिंदगी के लम्बे सफर मे,
कोई तो बोला,
झुको नही।
बचपन से,
माता-पिता,
दादा-दादी,
नाना-नानी,
समाज, संसकार,
सभी तो,
एक लड़्की को,
झुकना ही तो सिखाते हैं,
फलदार पेड़ की तरह।
नारी के झुकने से,
घर मे,
प्रेम, प्यार, प्रकाश,
और खिलते हैं,
खुशी के फुल्।
झुकती रही, भुलती रही,
और भुल ही गयी,
ऊपर वापस
भी आना होता है।
और आज,
कहते हैं डाक्टर बाबू,
झुको मत, सीधे रहो।
क्या, मानने से
बड़ॉ की बात,
सु-संसकार होने से,
झुके ही रह जाते हैं ?
और जिंदगी मे,
रह जाता है,
सब कुछ खाली-
अस्तित्व, आत्मा,
शरीर, संसार,
और कभी ना भरने वाली,
खाली दुनिया।
मन, चाहत, सपने,
सभी खाली हो गये हैं।
बिना सोचे, बिना जाने,
अल्हड़ जवानी, सपने,
सभी उड़ गये
और छोड़ गये पास मे,
कभी ना भरने वाला,
अहसास, ख़ाली पन का।
सदैव झुकना ही है तो,
बनाई क्यॉ थी,
ये रीढ की हड्डी?
अब सभी, झांकते ही रहे गये,
दास्ता लिखने वाले,
कभी नारी की,
बंद किताब को,
पढ्कर तो देखो। ।

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