Menu
blogid : 15605 postid : 1387201

मां का चौका

VOICES
VOICES
  • 97 Posts
  • 16 Comments

मांं का वो चौका,
ना वो कोई किचन था, ना कोई रसोई,
खाने के साथ, प्यार था भर पेट जहां।

 

 

 

 

कुछ ईंट, कुछ मिट्टी, कुछ गोबर,
अपने ज्ञान से, खाली एक साफ कोने में,
मोड्युलर किचन से भी आगे, बनाया था एक घर।

 

 

 

तृप्त खाने के साथ, जहांं होता था,
चिंता, प्यार, अपनापन रिश्ते-नातों का सार,
और एक असीमित ज्ञान का भंडार्।

 

 

 

नहाये बिना, चुल्हा कभी जला नहीं,
सर्दी हो या हो गर्मी, बीमार हो या स्वस्थ,
लगता था भोग भगवान का पहले सबसे।

 

 

 

पहली रोटी गऊ-ग्रास की और आखिरी कुत्ते की,
मेहमान हो या हो अनजान,
रखती थी वो सबका मान।

 

 

 

लाइन में करीने से लगे सभी डिब्बे,
भरे रहते थे, बेखबर बाजार की मार से,
कुछ डिब्बे होते थे रिजर्ब अन्जानी ब्यार के।

 

 

 

 

गुजिया, लड्डू, मिठाई, घेवर,
गुलाम होते थे, मेरी मांं के ज्ञान के,
पर हमारी भूखी तीखी आंखों  के होते थे वे तारे।

 

 

 

 

खुद खाती थी हमेशा सबके बाद,
जब हम तृप्त-गर्म खाने के बाद,
होते थे सोये कम्बल और रजाई में।

 

 

 

 

आज सब कुछ नया-नया है, मोड्युलर किचन में,
स्टोव, गैस, मिक्सी, फ्रिज, ओवन,
पर नहींं है तो ताजा-गर्म भरपेट खाना।

 

 

 

 

भोजन बन गया लंच-डिनर,
चिंता, प्यार, अपनापन रिश्ते-नातों की सार,
सब कुछ विदा हो गया मां के साथ।

 

 

 

 

मांं की अर्थी क्या उठी, उठ गयी,
अनमोल आवाज, बेहिसाब चिंता, तृप्त पेट,
उजड़ गयी एक सभ्यता, रह गयी सताती याद्।

 

 

 

 

वो खाली चौका, वो मिट्टी का चुल्हा,
प्यारी झिड्की, चेहरे पर गुस्सा, आंंख में पानी,
एक गहरी सकून, बस बन गया एक दुखद अतीत।

 

 

 

 

मांं की चिंता की गगन चूमती लपटें, राख हो गयीं,
प्यारी झिड्की, मिठाईयां, आंख का पनी, मिट्टी का चूल्हा,
और पीछे छुट गयीं बिलखती याद और एक ठंडा चुल्हा।

 

 

 

 

 

नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं, इनसे संस्‍थान का कोई लेना-देना नहीं है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh