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तुम और मै

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इतनी सहजता,
इतनी कोमलता,
इतनी सरलता,
हे, प्रभु,
पहले कहीं देखी नहीं।
वो डरना,
वो शरमाना,
वो मुस्कराना,
हे प्रभु,
पहले कहीं देखा नहीं।
इतनी बैचनी,
इतनी चाहत,
इतनी खुशी,
हे, प्रेभू,
पहले कहीं देखा नहीं।
क्या होता है,
क्यों होता है,
कैसे होता है,
हे, प्रभु,
नहीं जानता कोई इस तिलिस्म को।
तभी तो जिसके आगोश मे तैरते,
तुम और मै, दो अंजान,
पूरे पारदर्शी हो जाते है।
और आंखे बंद होते हुए भी,
कोई रहस्य रह नहीं जाता,
जो हमने देखा न हो,
जो हमने जाना न हो,
जो हमको महसूस न हो।
आखिर क्या रिश्ता है,
‘तुम’ और ‘मै’ का ?

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