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जब से भारत को आजादी मिली है और भारत तथा पकिस्तान दो अलग स्वतंत्र देश के रूप में हिंदुस्तान के दो टुकड़े होकर अस्तित्व में आए तब से शाशन प्रणालियाँ हिन्दुओं के दमन में संलग्न रही. साथ ही साथ मुसलमानों को झूटे वायदे कर उनका तुष्टिकरण करने में जुटी रही. अगर हिन्दुओं को नीचे दबाकर सही रूप में मुसलमानों के हितों की रक्षा होती तब बात कुछ और होती. पर ऐसा हुआ नहीं. मुसलमानों की दशा में सुधार नहीं हुआ. मुसलमान परिवारों की सामान्तः आर्थिक दुर्दशा में किसी प्रकार का सुधार नहीं हो सका. शिक्षा या आर्थिक स्तिथि में सुधार की व्यवस्था वस्तुतः की नहीं गयी. धार्मिक रीति रिवाजों के सन्दर्भ में मुसलामानों को इस्लाम धर्म की कुरीतिओं के अंतर्गत रखा गया. मुल्लाओं और मौलवियों की सहायता से मुसलमानों को पिछड़ा का पिछड़ा ही रखना संभव हो सका.
इस प्रक्रिया में हिंदू और मुसलमान में दरार बढता गया जो अब गैर कांग्रेसी बीजेपी की सरकार में सामने उभर कर आ रही है. विडंबना इस बात की है कि इस दरार के मूल कारणों को हम समझना नहीं चाहते. मुल्लाओं और छोटे भाई का पैजामा और बड़े भाई का कुरता पहनने वाले दाढ़ीदार मौलवियों ने इस्लाम की आड़ में नेताओं के साथ मिलकर मुसलामानों को आर्थिक, सामजिक, राजनीतिक क्षेत्रों में उन्नति में बाधा बनाकर पीछे धकेलने में कामयाब रहे. उत्तर प्रदेश में सामाजिक इस्लामीकरण की प्रक्रिया समाजवादी एवं बहुजन समाजवादी दलों के शाशन में तीब्रता से चलती रही. निस्संदेह इस इस्लामीकरण की प्रक्रिया में कांग्रेस पार्टी का भी योगदान रहा.
मुसलमान मर्दों के बारे में नहीं कहा जा सकता पर मुसलमान महिलाओं में जागरूकता अवश्य आई है और मुल्लाओं, मौलवियों तथा राजनेताओं के बीच की सांठ गांठ को समझने में ये वीरांगनाएँ अधिक सक्षम रही हें.
इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदू वर्ग तो विकास से दूर रहा ही मुसलमानों की भी प्रगति नहीं हो पाई.
धर्म निर्पेक्षता का सहारा लेकर राजनेता हिन्दुओं और मुसलमानों को उन्नति से वंचित रखने में कामयाब रहे. मुसलमानों को उन्नति से वंचित रखना आसान रहा क्योंकि इस्लाम के ठेकेदारों की सक्रिय सहायता राजनेताओं को प्राप्त होती रही.
यदि भारत के संविधान की बात की जाये तब यह कहा जाएगा कि जब भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 में लागू हुआ उस समय इस संविधान में इसकी चर्चा नहीं थी कि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है. धर्मनिरपेक्षता का ज़िक्र संविधान में इसलिये नहीं किया गया कि भारत का स्वाभाव ही ऐसा है जहां सभी धर्मों को समान समझा जाता है और जहां धर्मनिरपेक्षता को स्वाभाविक हो सम्विधान में बल देने की आवश्यकता नहीं समझी गयी. लेकिन 1976 में इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान में धर्मनिरपेक्षता को जोड़ना ज़रूरी समझ. संविधान का 42nd संशोधन किया और संविधान के आरम्भ में प्रस्तावना में इसे स्पष्ट किया गया कि भारत एक धर्म्निर्पेक्ष देश है. इसका यह अर्थ हुआ कि स्पष्टता दी गयी इस सच्चाई को कि भारत देश में सभी धर्म समान है और सरकारी भेदभाव धर्म के आधार पर संविधान के विरुद्ध है. लेकिन इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि भारत का संविधान या भारत का कानून इसको परिभाषित नहीं करता कि धर्म और राष्ट्र के बीच क्या सम्बन्ध है.
ऐसा कहा जाता है कि मुसलमानों को खुश करने के लिए तत्कालीन सक्कार ने जो स्पष्ट बात थी उसे साफ़ कर दिया ताकि चुनावों में मुसलामानों का अधिकांशतः वोट कांग्रेस को मिलता रहे. भारत की ग़रीब और अधिकांशतः अशिक्छित जनता को बेवकूफ बनाने की तरकीब की गयी. और इस काम में कांग्रेस को तथा अन्य क्षेत्रीय दलों को पर्याप्त सफलता भी प्राप्त हुई. धर्म निर्पेक्छ्ता के आधार पर मुसलमानों को लुभावने सपने दिखाए गये पर समाज में हिंदू मुस्लिम समुदाय के बीच दरार बढाने के सिवा कांग्रेस की केंद्रीय और राज्य सरकारों ने कुछ नहीं किया. जहां सोहार्द्र था वहाँ अलगाव का माहौल कांग्रेस तथा उसके सहयोगियों ने किया है.
राष्ट्र का धर्मों के प्रति क्या भूमिका होनी चाहिए इसकी परिभाषा नहीं सोची गयी. हिन्दुओं के प्रति भेद भाव अवश्य किया जाता रहा है इस संविशान की प्रस्तावना में यह जोड़ कर कि भारत एक धर्म्निर्पेक्ष राष्ट्र है. समय आ गया है जब सभी हिन्दुओं को और समझदार मुसलमानों को एक जुट होकर ऐसे पार्टिओं को वोट से वंचित रखा जाये और सरकार से केंद्र में और राज्यों में भी इस प्रकार के राजनेताओं को बहुत दूर रखा जाये.
राष्ट्र की सुरक्षा को समाज में विभाजन करने वाले राजनेताओं से बचाना हर भारतीय नागरिक का कर्त्तव्य है. आपसी सद्भाव को विभाजनकारी नेताओं के हाथों में सौपना हिन्दुओं के लिए अतर्कसंगत और विनाशकारी तो है ही मुसलमानों के हित में भी यह सही नहीं है.
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