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आज यूपी में बीएसपी की सरकार है और यह राज्य की सबसे बड़ी पार्टी मानी जाती है. बीएसपी को आज देश में एक ऐसी पार्टी के तौर पर देखा जाता है जो देश की राजनीति के बड़े और अहम हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है. आज बीएसपी पूरे भारत में अपने पांव जमाने की तैयारी में है लेकिन जिस घर से बीएसपी का हाथी निकला था उसे उसके घर में ही कोई नहीं पूछता. जी हां, बीएसपी का गठन कभी पंजाब में ही हुआ था. आज बीएसपी उत्तर प्रदेश की तो सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन पंजाब में इसकी तरफ कोई ध्यान नहीं देता.
कांशीराम की बसपा का हाल यहां दूसरे राज्यों के मुकाबले बहुत कमजोर है. मान्यवर के लगाए पौधे की जड़ें यहां की उर्वर भूमि में कभी मजबूत नहीं हो पाईं. विधानसभा के इस चुनाव में भी पार्टी के प्रदर्शन को लेकर बहुत अप्रत्याशित उम्मीदें नहीं हैं. इसकी वजह यहां की दलित जातियों का अलग-अलग खांचों में बंटा होना है.
दरअसल बीएसपी हमेशा अपना वोट बैंक दलितों को बनाती है और पंजाब में दलितों की आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक स्थितियां उत्तर प्रदेश समेत देश के अन्य हिस्से के मुकाबले बिल्कुल अलग हैं.
बसपा को उत्तर प्रदेश में दलितों की जिस जमात ने हाथोंहाथ लिया और गले लगाकर राजनीति की ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है, वहीं पंजाब की माटी के लोगों को बसपा बहुत रास नहीं आ रही है. पंजाब में 35 फीसदी से भी अधिक दलित आबादी है, फिर भी दलित मतदाताओं पर एकाधिकार का दावा करने वाली बसपा कोई खास फायदा नहीं उठा पाई है. बसपा को राज्य के दलितों का पूरा समर्थन कभी नहीं मिला है.
पंजाब में दलितों की आर्थिक स्थिति वैसी नहीं है, जैसी उत्तर प्रदेश व अन्य राज्यों में है. प्रथम हरित क्रांति का केंद्र होने की वजह से यहां की खेती उन्नत है और औद्योगिक विकास भी खूब हुआ है. इसी के चलते यहां के दलितों के लिए रोजी-रोटी का कोई संकट नहीं है. सामाजिक स्थितियां उनके लिए कभी अपमानजनक नहीं रही हैं. शायद ही किसी परिवार को देखकर आप उन्हें दलित कह सकते हैं.
बसपा के लिए बेगाना होने की एक वजह यह भी है कि राज्य के दलितों में कांशीराम जिस जाति से संबंध रखते थे वह कुल दलित आबादी का सिर्फ 26.2 फीसदी है. यह जाति दलितों में दूसरे नंबर पर आती है. जबकि, पहले नंबर पर मजहबी हैं, जिनकी आबादी 31.6 फीसदी है. यहां के दलितों में शिक्षा का स्तर राष्ट्रीय औसत के मुकाबले बेहतर है. कुछ वर्गों में साक्षरता का स्तर 75 फीसदी तक है. यही वजह है कि यहां के दलित चुनावों में भेड़चाल नहीं चलते हैं.
नहीं है कोई बंधुआ मतदाता
राजनीतिक सोच का नमूना यह है कि वे कभी किसी के बंधुआ मतदाता बनकर नहीं रहे. यहां की 37 दलित जातियां अपने हिसाब से हर चुनाव में अलग-अलग राजनीतिक दलों का समर्थन करती आई हैं. हर बार अलग-अलग उम्मीदवार को परखना आप पंजाब के मतदाताओं की आदत भी कह सकते हैं. यहां कभी कोई भी सरकार लगातार दो या तीन बार नहीं बन पाती. यह सही भी है कि जिसे लोग आजमाते हैं अगर वह सही ना निकले तो उसे बदलकर दूसरे को मौका देते हैं.
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