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Bollywood and National Film Awards-बॉलिवुड की फिल्में और राष्ट्रीय फिल्म अवॉर्ड

यूं तो भारतीय फिल्म उद्योग, क्षेत्रीय आधार पर कई भाषाओं में बंटा हुआ है, जैसे मराठी, कन्नड़, तमिल, बंगाली आदि, लेकिन राष्ट्र भाषा होने के कारण अधिक पहचान हिन्दी फिल्म इण्डस्ट्री यानी बॉलिवुड को ही मिल पाई है. चकाचौंध से भरी इस दुनियां में काम करने की तमन्ना हर क्षेत्रीय कलाकार रखता है, इसके अलावा आम आदमी भी इस दुनियां का एक हिस्सा बनने के लिए लालायित रहता है.


यहां हर साल हज़ारों की संख्या में फिल्में प्रदर्शित की जाती हैं, साथ ही इस उद्योग से जुड़े लोगों के काम और मेहनत की सराहना करने के उद्देश्य से कई पुरस्कार वितरण समारोह भी आयोजित किए जाते हैं. फिल्मफेयर, स्टार-स्क्रीन आदि इसके कुछ मुख्य उदाहरण हैं, जिन्हें हासिल करने के लिए कलाकार और तकनीकी क्षेत्र से जुड़े लोग अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देने की कोशिश करते हैं.


लेकिन यह पुरस्कार हमेशा से ही विवादों से घिरे रहे हैं. गौरतलब है कि आमिर खान, जो की एक गंभीर कलाकार और निर्देशक के रूप मे अपनी पहचान बनाने मे सफल रहे हैं, वह इन पुरस्कारों के लिए नामांकित होने के बावजूद, इनसे दूर रहते हैं. कहा जाता है कि इन पुरस्कारों को पाने के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति चलती रहती है.


NATIONAL AWARDSइन सब व्यावसायिक पुरस्कारों के अलावा,भारत सरकार की ओर से भी हर वर्ष राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिए जाते हैं. यह पुरस्कार फिल्म जगत से संबंधित हस्तियों को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, सर्वश्रेष्ट अभिनेत्री इत्यादि कई श्रेणियों के अंतर्गत दिए जाते हैं, जिन्हें मुख्यत: दो वर्गों, स्वर्ण कमल और रजत कमल के अंतर्गत रखा गया है.


लेकिन अक्सर देखा गया है कि इतने विशाल और आर्थिक रूप से सक्षम होने के बावजूद, बॉलीवुड फिल्में राष्ट्रीय फिल्म  पुरस्कार की मुख्य श्रेणी में स्थान नहीं बना पातीं.  इसकी कई वजह हो सकती है, जैसे फिल्मों में संवेदनशीलता और वास्तविकता की कमी, मौलिकता की अनुपस्थिति इत्यादि लेकिन सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण वजह है फिल्मों का व्यवसायीकरण जिसके चलते निर्माता, निर्देशक ज्यादा तरजीह ‘अधिक मुनाफा कैसे कमाया जाए’ इसको देते हैं बनिस्पत फिल्म की कहानी और उसमें दिखाए जाने वाले मर्म को.


फिल्म की कहानी कितनी ही मार्मिक क्यों न हो उसे कहीं न कहीं घटिया प्रबंधन और शुद्ध व्यावसायिकता के चलते वास्तविकता से दूर कर दिया जाता है, जिसके कारण दर्शक उसके संवेदनशील पहलू से खुद को नहीं जोड़ पाते. फिल्मी मसाले के नाम पर फिल्म की कहानी को इस कदर मरोड़ा जाता है कि दर्शक कुछ समझ ही नहीं पाता, और आजकल जिस तरह की फिल्मों का निर्माण किया जा रहा हैं वह तो समाज और शालीनता के बीच एक दीवार का काम कर रही हैं.


स्थिति तब और बिगड़ती है जब किसी सच्ची घटना पर फिल्म बनायी जाती है, निर्देशक उसे और आकर्षक  बनाने के चक्कर में उसकी मौलिकता और वास्तविकता से काफी दूर चला जाता है, जिसके फलस्वरूप संवेदनशील मुद्दा भी उपहास योग्य हो जाता है.


वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो क्षेत्रीय फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों के पास बॉलीवुड जैसा पैसा तो नही है, पर अधिकतर राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हीं की झोली में जाते हैं, क्योंकि जिस संवेदनशीलता को हिन्दी फिल्म जगत अहमियत नहीं दे रहा, उसकी उपयोगिता को क्षेत्रीय निर्देशक भली-भांति समझते हैं. आज जहां बॉलीवुड इण्डस्ट्री मूल रूप से व्यावसायिक हो चुकी है, वहीं क्षेत्रीय फिल्म उद्योग आज भी पैसा कमाने को ही अपना एकमात्र उद्देश्य ना मानते हुए लगातार बेहतरीन फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं. सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल जैसे कुछ निर्देशक ऐसे भी हैं, जो व्यथा को व्यथा ही रहने देते हैं, न की उसे मनोरंजक स्थिति में बदलते हैं.


यह जरूर है कि पैसे की कमी के कारण क्षेत्रीय फिल्में तकनीकी रूप से इतनी सशक्त नहीं होतीं लेकिन फिल्म का बढ़िया निर्देशन और बेजोड़ कलाकारी उसकी इस कमी को छुपा जाते हैं. ऐसा भी कह सकते हैं कि इन सब खूबियों के चलते दर्शक तकनीकी पक्ष की ओर ज्यादा ध्यान ही नहीं देता. वहीं बॉलीवुड निर्माता आर्थिक रूप से समृद्ध होने के कारण नई-नई तकनीकों को अपनाते जरूर हैं जिस कारण एक बार को फिल्में दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल जरूर होती हैं किंतु उनका दीर्घकालीन असर ना के बराबर होता है.


वैसे तो किसी फिल्म का निर्माण केवल पुरस्कार अर्जित करने के उद्देश्य से नहीं होता, लेकिन अगर आपके काम को पहचान के साथ राष्ट्रीय पुरस्कार के रूप में सराहना मिल जाए तो इससे निर्देशक के मनोबल में वृद्धि होती है और साथ ही आगे भी बेहतरीन फिल्में बनाने के लिए प्रेरित होता है.


इन सब से सीख लेते हुए, बॉलीवुड निर्माताओं और निर्देशकों को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी घटती लोकप्रियता बचाने के लिए गंभीर होकर सोचने की जरूरत है. क्योंकि ऐसी बेतुकी और बेवजह निर्मित हुई फिल्मों की उमर बहुत छोटी होती है, और एक मजबूत पहचान बनाने के लिए व्यवसाय से परे फिल्मों से जुड़े सामाजिक पहलू को भी देखा जाना चाहिए.



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