हर हफ्ते फिल्मों की रिलीज के बाद उनके कलेक्शन और मुनाफे के आंकड़े आरंभ हो जाते हैं। कुछ सालों पहले तक हिट और सुपरहिट लिखने भर से काम चल जाता था। अब उतने से ही संतुष्टि नहीं होती। ट्रेड पंडित और विश्लेषक पहले शो से ही कलेक्शन बताने लगते हैं। मल्टीप्लेक्स थिएटरों के आने के बाद आंकड़े जुटाना, दर्शकों का प्रतिशत बनाता और कुल मुनाफा बताना आसान हो गया है। इन दिनों एक सामान्य दर्शक भी नजर रखना चाहे तो इंटरनेट के जरिए मालूम कर सकता है कि कोई फिल्म कैसा बिजनेस कर रही है। फिल्मों के प्रति धारणाएं भी इसी बिजनेस के आधार पर बनने लगी हैं। सामान्य दर्शक के मुंह से भी सुन सकते हैं कि फलां फिल्म ने इतने-इतने करोड़ का व्यापार किया। क्या सचमुच फिल्म के कलेक्शन से फिल्म के रसास्वादन में फर्क पड़ता है? क्या कलेक्शन के ट्रेंड से आम दर्शक प्रभावित होते हैं?
शुक्रवार को रिलीज हुई फिल्मों की समीक्षा अब शनिवार को अखबारों में आने लगी हैं। इंटरनेट के इस दौर में वो रिव्यू मेल करने के आधे घंटे के अंदर वह ऑनलाइन हो जाती है। इस दबाव में अनेक बार फिल्म के बारे में बनी पहली राय को ही अंतिम राय हो जाती है। मैंने कई दफा महसूस किया है कि भावावेग और जल्दी रिव्यू लिखने के दबाव में फिल्म का उपयुक्त विश्लेषण नहीं हो पाता। इसके अलावा शब्दों की सीमा की भी बाधा रहती है। बहरहाल, इन दिनों पाठकों और प्रशंसकों की जिज्ञासा रहती है कि रिव्यू में फिल्म के चलने या न चलने का भी संकेत मिलें। फिल्मों के प्रिव्यू से निकलने पर मित्रों-परिचितों के प्रश्न होते हैं, कैसी लगी फिल्म? अगर मैंने जवाब दिया अच्छी लगी तो दूसरा सवाल होता है कि चलेगी क्या? इस सवाल से बहुत कोफ्त होती है। किसी फिल्म के चलने या न चलने की भविष्यवाणी कोई समीक्षक कैसे कर सकता है? फिल्म श्रेष्ठ, अच्छी, सामान्य और बुरी के श्रेणी में तो बताई जा सकती है, लेकिन उसके हिट या फ्लॉप होने के बारे में कोई कैसे बता सकता है? हां, ट्रेड पंडित भविष्यवाणियां करते हैं। यह उनका काम है।
फिल्म ट्रेड का असर अब फिल्म पत्रकारिता में बढ़ गया है। टीवी पर जारी फिल्म पत्रकारिता में हिट या फ्लॉप का नजरिया पेश किया जाता है। फिल्म ट्रेड के पंडितों और विश्लेषकों को समीक्षकों के तौर पर पेश किया जाता है। ऐसा घालमेल हो गया है कि ट्रेड विश्लेषक ही क्रिटिक मान लिए गए हैं। फिल्म की गुणवत्ता के आधार पर बात करने वाले समीक्षकों को दोयम दर्जे का समझा जाता है। माना और कहा जाता है कि उन्हें आम दर्शकों की रुचि का कोई अंदाजा नहीं है। फिल्मों को तो आम दर्शक के नजरिए से देखा जाना चाहिए। यही कारण है कि फिल्मों के गंभीर समीक्षकों को खारिज करने का चलन बढ़ा है। इसके अलावा फिल्म इंडस्ट्री में अंग्रेजी के प्रचलन से गैरअंग्रेजी समीक्षकों की राय को ज्यादा तरजीह नहीं दी जाती। दरअसल, निर्माता, निर्देशक और स्टार आम तौर पर न तो हिंदी के अखबार पढ़ते हैं और न ही यह मानते हैं कि भारतीय भाषाओं के कवरेज से फिल्म को फायदा या नुकसान होता है। फिल्म इंडस्ट्री महानगरों की हद से बाहर न तो देख पाती है और न सोच पाती है, जबकि यह सच्चाई सामने आने लगी है कि सुपरहिट होने के लिए हर फिल्म को छोटे शहरों और कस्बों में भी लोकप्रिय होना पड़ेगा। देखें तो इधर 100 करोड़ के क्लब में आई फिल्मों का 40-50 प्रतिशत बिजनेस सिंगल स्क्रीन और छोटे शहरों से आ रहा है।
साभार – जागरण याहू
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