हिंदी फिल्मों के प्रचार पर अभी करोड़ों रुपये खर्च होते हैं. छोटी से छोटी फिल्म की पब्लिसिटी में भी इतनी रकम लग ही जाती है. निर्माता-निर्देशक और फिल्म के स्टारों का पूरा जोर रहता है कि रिलीज के पहले दर्शकों के दिमाग में फिल्म की छवि बिठा दी जाए. वे शुक्रवार को उनकी फिल्म देखने जरूर जाएं. व्यापार के बदले स्वरूप की वजह से प्रचार भी सघन और केंद्रित होता जा रहा है. अभी फिल्मों का व्यापार मल्टीप्लेक्स थिएटरों के वीकऐंड बिजनेस पर ही निर्भर कर रहा है. पहले वीकऐंड में ही पता चल जाता है कि फिल्म के प्रति दर्शकों का क्या रवैया होगा? इन दिनों शायद ही कोई फिल्म सोमवार के बाद फिल्मों से कमाई कर पाती है.
मल्टीप्लेक्स मुख्य रूप से महानगरों में हैं. हिंदी फिल्मों के बिजनेस के लिहाज से मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, चंडीगढ़ और इंदौर मुख्य ठिकाने हैं. निर्माता और प्रोडक्शन कंपनियों का जोर रहता है कि इन शहरों के दर्शकों को किसी भी तरह रिझाकर सिनेमाघरों में पहुंचाया जाए. इस उद्देश्य से इन शहरों में ही प्रचार संबंधी इवेंट और गतिविधियों पर उनका ध्यान रहता है. बाकी शहरों और इलाकों की तरफ वे गौर भी नहीं करते. परिणाम यह होता है कि प्रचार और इवेंट से वंचित शहरों के दर्शकों में नई फिल्मों को लेकर उत्सुकता नहीं बनती. वे सिनेमाघरों में जाकर फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने के लिए तत्पर नहीं होते. फिल्में वे भी देखते हैं, पर जरूरी नहीं है कि सिनेमाघरों में जाकर देखें. दर्शकों की इस उदासी और निष्क्रियता का सीधा असर फिल्म के कलेक्शन में दिखता है. मुंबई और दिल्ली में अच्छा व्यवसाय कर रही फिल्में कई बार पटना, लखनऊ और दूसरे शहरों के दर्शकों के शहरों को आकर्षित नहीं कर पातीं. गजनी और दबंग जैसी व्यापक प्रभाव और लोकप्रियता की फिल्मों की बात अलग है. ये फिल्में समान रूप से पूरे देश में चलती हैं.
उन फिल्मों को लेकर दर्शकों के बीच जागरूकता नहीं थी. निर्माताओं ने उन इलाकों के दर्शकों को अपनी फिल्म के जानकारी ही नहीं दी. स्टार अपने व्यस्त रुटीन से इन शहरों के लिए समय नहीं निकालते. उन्हें वहां जाना गैरजरूरी लगता है. एक दिक्कत मुंबई से आने-जाने की भी है. मुंबई से दिल्ली या अहमदाबाद या यहां तक कि इंदौर को भी एक दिन में कवर किया जा सकता है, लेकिन पटना और रांची में इवेंट करने पर वहां रुकना पड़ता है. ऐसी स्थिति में फिल्म स्टार वहां जाने से हिचकते हैं. वे इन शहरों की यात्रा टाल जाते हैं. अपनी इस लापरवाही में वे अनजाने ही उन दर्शकों को भी टाल जाते हैं, जो उनकी फिल्मों के संभावित दर्शक हो सकते थे.
पूरे प्रसंग को स्पष्ट करने के लिए दम मारो दम का उदाहरण उचित होगा. इस फिल्म के प्रचार के लिए पहली बार अभिषेक बच्चन पटना गए. वहां के दर्शकों और मीडिया ने उनका जोरदार स्वागत किया. बिहार और झारखंड के दर्शकों में दम मारो दम को लेकर उत्सुकता बढ़ी. उनकी इस उत्सुकता की वजह से वितरकों ने बिहार और झारखंड में फिल्म के प्रिंट की संख्या बढ़ा दी. रिलीज के पहले 50 और प्रिंट मंगवाए गए. निश्चित ही इस प्रक्रिया में फिल्म के दर्शक बढ़ेंगे. दम मारो दम की टीम दिल्ली, अहमदाबाद, और चंडीगढ़ की यात्रा से संतुष्ट हो सकती थी, लेकिन तब उसे ये दर्शक नहीं मिलते. दर्शक हैं, लेकिन वे रूठे हुए हैं. उन्हें लगता है कि निर्माता-निर्देशक और स्टार उन्हें अपनी फिल्मों के लिए आमंत्रित ही नहीं करते, तो फिर वे क्यों घर से सिनेमाघर जाने की जहमत उठाएं. इस बार अभिषेक ने राह दिखाई है. उम्मीद है कि दूसरे निर्माता-निर्देशक भी दम मारो दम का अनुसरण करेंगे.
साभार : जागरण
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