हिन्दी फिल्म यानी हीरो, हिरोइन और एक तगड़ा खलनायक. खलनायक जो हीरो को हीरो बनाता है. एक निगेटिव रोल को ढालने वाला यह किरदार हमेशा से हिन्दी सिनेमा में काफी लोकप्रिय रहा है. सबसे सफलतम और बड़ी फिल्मों में भी आपको हीरो से ज्यादा खलनायकों का रोल नजर आएगा. फिर चाहे शोले का गब्बर सिंह हो या मिस्टर इंडिया का मोगैम्बो सबने समय की रेत पर अपनी अमिट छाप छोड़ी.
लेकिन आज सिनेमा से खलनायक गायब होते नजर आ रहे हैं या यों कहें गायब हो चुके हैं. अमरीश पुरी, अमजद खान, शक्ति कपूर, बैड बॉय गुलशन ग्रोवर आदि का फिल्मों से जैसे नाता ही टूट गया है.
अगर आप पिछले चार पांच सालों पर नजर डालें तो आपको एक भी सशक्त खलनायक नजर नहीं आएगा. अमरीश पुरी की मृत्यु हो चुकी है तो ओमपुरी, अनुपम खेर जैसे खलनायक अब अपनी भूमिका से अलग होने लगे हैं. वैसे आजकल की फिल्मों में खलनायकों का रोल बन ही नहीं रहा. पिछले दस सालों में तनूजा चंद्रा की फिल्म दुश्मन का गोकुल पंडित(आशुतोष राणा) ही ऐसा विलेन आया है, जिसे देखकर डर और घृणा का भाव आए.
हिंदी फिल्मों में आजकल एक नया ट्रेंड दिखाई पड़ रहा है. पूरी फिल्म में हीरो ही खलनायक और नायक दोनों की भूमिका निभाता है. खलनायकों के खत्म होने के पीछे एक वजह यह भी है कि आज के अभिनेता जो नायक होते हैं, वह अपने किरदार को हर रुप में ढालने को तैयार रहते हैं. आज नायक ही खलनायक की भी भूमिका निभा रहे हैं. आलम यह हो गया है कि अब हिन्दी सिनेमा के पास एक भी विशेषज्ञ खलनायक नहीं रह गया है जिसकी जरुरत आपको गजनी या वांटेड जैसी फिल्मों में देखने को मिली. आज स्थिति यह है कि हिंदी फिल्मों में खलनायकों के किरदार निभाने वाले कलाकारों को दक्षिण भारत की फिल्मों में शरण लेनी पड़ रही है. साथ ही कुछ नई फिल्मों पर जैसे “बदमाश कपंनी” या “दबंग” में भी खलनायक की भूमिका में नायक ही हैं.
फिल्मों से खलनायकों की अनुपस्थिति का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि फिल्मों की कहानियों से नाटकीयता गायब हो गई है. खलनायक जितना सशक्त और मजबूत होता था उतना ही नायक को अपने रोल में मजबूती मिलती थी.
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