आजादी के बाद विभिन्न कारणों से फिल्म निर्माण और व्यवसाय देश के तीन महानगरों मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में केंद्रित हुए. इनमें से मुंबई हिंदी और मराठी सिनेमा का गढ़ बनी. आजादी के आसपास पुणे और कोल्हापुर में छिटपुट रूप से मराठी फिल्मों का निर्माण होता था. कालांतर में सुविधाओं की वजह से इन शहरों की प्रोडक्शन कंपनियों ने भी मुंबई को ठिकाना बनाया. मुंबई में पहले से ही फिल्म निर्माण की गतिविधियां तेज थीं. विभाजन के बाद लाहौर से अनेक फिल्मी हस्तियों ने मुंबई की ओर रुख किया. अगर देश का विभाजन नहीं हुआ होता, तो निश्चित ही हिंदी फिल्मों के निर्माण में लाहौर और मुंबई की टक्कर चलती रहती. वह स्थिति मुख्य रूप से हिंदी और व्यापक रूप से भारतीय सिनेमा के लिए किसी भी सूरत में आज से बेहतर होती.
बहरहाल, मुंबई हिंदी फिल्मों का मुख्य केंद्र बना. देश के सभी कोनों से फिल्म बनाने की लालसा और फिल्मों में काम पाने की उम्मीद से हर साल हजारों युवक मुंबई आते हैं. उनमें से कुछ ही कामयाब होते हैं. अपनी कामयाबी हासिल करने में उनमें से ज्यादातर को अपनी मौलिकता खोनी पड़ती है. हिंदी फिल्मों का ढांचा और फार्मूला इतना मजबूत हो गया है कि छिटपुट प्रयोगों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता.
जो नया होता है, इंडस्ट्री उसका भी एक फार्मूला बना लेती है और फिर उसे विशेष ढांचे के साथ खड़ा कर देती है. एक दुष्चक्र है, जिसमें सभी शामिल हैं या हो जाते हैं. नए उत्साही इंडस्ट्री में काम पाने की जद्दोजहद में धीरे-धीरे पुराने और अनुभवी होते हैं. वे फिर सिस्टम का हिस्सा बनते हैं. पुराने होने के साथ वे खुद ग्लैमर के दुर्ग में घुस जाते हैं. अंदर जाने के साथ ही वे नए के विरोधी बन जाते हैं. फिर से कुछ नए की लड़ाई शुरू होती है. यह सिलसिला दशकों से चला आ रहा है. फिर भी यह सच्चाई है कि विषय, प्रस्तुति, शैली और विधाओं में विस्तार बाहर से आए लोग ही करते हैं. नए से पुराने होने की प्रक्रिया में वे कुछ बेहतरीन किरदार और फिल्में दे जाते हैं. इस तरह हिंदी फिल्में आगे बढ़ती रहती हैं.
हिंदी फिल्मों के निर्माण और वितरण की अधिकांश गतिविधियों के मुंबई केंद्रित होने की वजह से देश के दूसरे शहरों में की गई कोशिशें आधी-अधूरी ही रह जाती है. सबसे बड़ी समस्या है कि कभी किसी प्रदेश की सरकार ने अपने यहां फिल्म निर्माण के लिए आवश्यक आधारभूत संरचना तैयार करने की पहल नहीं की. नतीजा यह हुआ कि फिल्म नामक मनोरंजक प्रोडक्ट का निर्माण मुंबई में होता रहा और यहीं के चंद लोग निर्धारित करते रहे कि देश को किस तरह का मनोरंजन चाहिए. हालांकि वे दावा करते हैं कि हम तो दर्शकों की पसंद की फिल्में बनाते हैं. दरअसल पिछले 60-70 सालों में हिंदी फिल्मों के दर्शक इस तरीके से कंडीशंड हो गए हैं कि उन्हें कुछ भी नया और प्रयोगशील अच्छा नहीं लगता. फिर सवाल उठता है कि हिंदी फिल्मों का ढांचा और फार्मूला कैसे टूटेगा?
फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि यह ढांचा और फार्मूला कभी टूटेगा. कुछ कोशिशें हो रही हैं. छोटे स्तर पर निजी प्रयासों से मुंबई के बाहर अनेक शहरों में सिनेप्रेमी प्रयास कर रहे हैं. मोटे तौर पर हिंदी फिल्मों के प्रभाव में ही वे स्थानीय प्रयोग कर रहे हैं. सीमित बजट, अपरिचित कलाकार और नए विषयों पर मौलिक फिल्में बना रहे हैं. इनमें से अधिकांश फिल्मों के बारे में हम राष्ट्रीय स्तर पर कुछ नहीं जानते. ऐसी फिल्में अपनी सीमा और प्रभाव क्षेत्र में जड़ें जमा रही हैं. तकनीकी विकास ने इस काम को आसान किया है. अब यह जरूरी नहीं रह गया है कि ऊंची लागत के रॉ स्टाक और कैमरे से ही फिल्में शूट की जाएं. नए किस्म और क्वालिटी के हाई डेफिनेशन कैमरे आ गए हैं. एडीटिंग की सुविधाएं लैपटॉप पर मौजूद हैं. बस, जरूरत है एक अच्छी कहानी, सोच और इरादे की… आप अपना सिनेमा तैयार कर सकते हैं. ऐसे छिटपुट और असफल प्रयासों से ही हिंदी फिल्मों का ढांचा और फार्मूला दरकेगा.
Source: Jagran Yahoo
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