जब भी हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर की बात होती है, तो दादासाहब फाल्के का नाम सबसे पहले लिया जाता है। वो एक जाने-माने प्रड्यूसर, डायरेक्टर और स्क्रीनराइटर थे जिन्होंने अपने 19 साल लंबे करियर में 95 फिल्में और 27 शॉर्ट मूवी बनाईं। कम लोग ही जानते हैं कि दादा साहेब फाल्के का असली नाम धुंधिराज गोविन्द फाल्के था। आज उनका जन्मदिन है, आइए जानते हैं उनकी खास बातें।
शुरुआत में फोटोग्राफी और पेंटिंग किया करते थे दादा साहब फाल्के
दादा साहब फाल्के का असली नाम है धुंडीराज गोविंद फाल्के। उनका जन्म 30 अप्रैल 1870 में महाराष्ट्र के एक त्रयंबक नामक शहर में हुआ। दादा साहेब फाल्के ने जेजे स्कूल ऑफ आर्ट से 1885 में एक साल का ड्रॉइंग का कोर्स खत्म किया। फिर कुछ समय अपने बड़े भाई के साथ काम में हाथ बंटाकर उन्होंने महाराज सयाजीराव यूनिवर्सिटी ऑफ बड़ौदा से ऑयल पेंटिंग और वॉटरकलर पेंटिंग का कोर्स किया। जिसके बाद एक कैमरा खरीदकर उन्होंने फोटोग्राफी के क्षेत्र में ही काम करने का फैसला किया। इस बीच उनकी शादी भी हुई, लेकिन उनकी पत्नी और बेटा दोनों एक गंभीर बीमारी की वजह से चल बसे।
जर्मन जादूगर के साथ काम और प्रिटिंग प्रेस की शुरुआत
दादा साहेब फाल्के का स्टेज से पहला रिश्ता पेंटिंग के जरिए बना। वह थियेटर के लिए पर्दों पर पेंटिंग का काम किया करते थे। साथ-साथ थोड़ा बहुत ड्रामा प्रोडक्शन भी सीख लिया। कम लोग ही जानते होंगे कि फाल्के ने एक जर्मन जादूगर के साथ भी काम किया और खुद उन्होंने भी कई जगहों पर मैजिक शोज किया। गिरिजा करणीकार से दूसरी शादी के कुछ समय बाद उन्हें पुरातत्व विभाग से फोटोग्राफर व ड्राफ्ट्समैन की नौकरी मिली। तीन साल काम की नौकरी को छोड़ उन्होंने आर जी भांजरकर के साथ लोनावाला में प्रिंटिंग प्रेस खोली ‘फाल्के एंग्रेविंग एंड प्रिंटिंग वर्क्स’ के नाम से।
लगातार फिल्म देखने की वजह चली गई थी आंख की रोशनी
मुंबई के एक थियेटर में दादा साहेब फाल्के ने अपने परिवार संग एक फ्रेंच फिल्म देखी, द बर्थ ऑफ क्राइस्ट, जिसे देख उनके अंदर का फिल्ममेकर जाग गया। फिर उन्होंने एक साल खुद से तैयारी की, हर तरह के जतन कर उन्होंने एक फिल्म कैमरा और रील्स खरीदे। वह देर रात तक उन तस्वीरों को प्रोजेक्टर और मोमबत्ती के जरिए दीवार पर देखा करते। जिसके कारण उनकी आंखों की रोशनी चली गई। डॉक्टर्स ने उन्हें दो तीन लेंस वाला चश्मा तैयार करके दिया। लंदन जाने की चाह में उन्होंने 10 हजार रुपए उधार लिए और वहां जाकर फिल्म बनाने की तकनीकों की जानकारी हासिल की। मुंबई लौटकर ही उन्होंने फाल्के फिल्म्स एंड कंपनी खोली।
महिला कलाकारों को दिया सबसे पहले काम
दादा साहब फाल्के ने ‘राजा हरिश्चंद्र’ से डेब्यू किया जिसे भारत की पहली फुल-लेंथ फीचर फिल्म कहा जाता है। बताया जाता है कि उस दौर में दादा साहब फाल्के ने ‘राजा हरिश्चंद्र’ का बजट 15 हजार रुपये था, उस समय में उन्हें कोई महिला कलाकार नहीं मिली, जिसकी वजह से फिल्म में राजा हरिश्चंद्र की पत्नी का किरदार एक आदमी ने ही निभाया। राजा हरिश्चचंद्र भारत की पहली फुल लेंथ फीचर फिल्म रही, जिसे उन्होंने 1913 में छह महीने 27 दिन में बनाया। इसके बाद फाल्के ने मोहिनी भस्मासुर और सत्यवान सावित्री फिल्में बनाई जो दर्शकों को खूब पसंद भी आई। मोहिनी भस्मासुर पहली फिल्म रही जिसमें महिला कलाकारों ने भारतीय सिनेमा में पहली बार काम किया।…Next
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