आजकल फिल्म आती नहीं है कि फिल्म की समीक्षा पहले आ जाती है जो बेहद सटीक होती है. सिनेमाहॉल में जाने से पहले ही अधिकतर दर्शकों को कहानी पता चल जाती है. और फिल्म के रिलीज होते ही इसकी कहानी इंटरनेट समेत हर जगह पहुंच जाती है. यह रिव्यू और प्रिव्यू का खेल कभी-कभी तो सबको सही लगता है पर कभी-कभी यह निर्देशक और निर्माता के लिए सरदर्द का सबब भी बन जाता है.
पहले एक सामान्य तरीका था कि निर्माता फिल्म समीक्षकों को रिलीज के दो-तीन दिन पहले या कम से कम गुरुवार को फिल्म दिखा देते थे. फिल्म समीक्षक अपनी समीक्षाएं रविवार को प्रकाशित करते थे. बाद में समीक्षाओं का प्रकाशन रविवार से शनिवार और फिर शनिवार से शुक्रवार को खिसक कर आ गया. कुछ फिल्म समीक्षक तो पहले देखी हुई फिल्मों की समीक्षा बुधवार और कभी-कभी सोमवार को भी ऑन लाइन करने लगे हैं. ऐसी समीक्षाओं में आम तौर पर समीक्षक फिल्मों की प्रशंसा करते हैं और उन्हें अमूमन चार स्टार देते हैं. निर्माता या फिल्मकार की यही मंशा रहती है कि ऐसे रिव्यू से फिल्म के प्रति आम दर्शकों की सराहना बढ़े और वे एक बेहतर फिल्म की उम्मीद पा लें. गौर करें कि बुधवार या उसके पहले कभी कोई ऐसा रिव्यू नहीं छपता, जिसमें फिल्म की बुराई या खिंचाई हो या फिल्म की कमियों को गिनाकर तीन से कम स्टार दिए गए हों. स्पष्ट है कि निर्माता, सकारात्मक और हाई रैंकिंग रिव्यू से खुश होते हैं.
लेकिन इसके विपरीत कुछ निर्माताओं ने फैसला किया है कि अब वे समीक्षकों के लिए किसी प्रिव्यू शो का आयोजन नहीं करेंगे. उनका तर्क है कि एक तो इन्हें फिल्म दिखाओ, इंटरवल में कुछ खिलाओ-पिलाओ और फिर इनकी आलोचना पढ़ो. अच्छा है कि समीक्षक शुक्रवार को थिएटरों में जाकर पैसे खर्च करें और खुद से फिल्में देखें. समीक्षकों को इसमें कोई दिक्कत नहीं है. समस्या तब आती है, जब किसी हफ्ते 3-4 फिल्में एक साथ रिलीज होती हैं और सभी फिल्में शुक्रवार को देखनी होती हैं. चूंकि अब ज्यादातर अखबारों में शनिवार को रिव्यू छपते हैं, इसलिए समीक्षकों को फटाफट फिल्में देखकर समीक्षा लिखनी पड़ती है. निर्माताओं का तर्क होता है कि पहले दिखा देने पर अगर निगेटिव रिव्यू आ जाए, तो पहले शो से ही दर्शक नहीं आते हैं. शुक्रवार को अगर समीक्षक फिल्म देखते हैं, तो शनिवार से पहले रिव्यू नहीं आते और दर्शक खुद फिल्म देखने का चांस लेते हैं. इसी बहाने दर्शक मिल जाते हैं.
लेकिन यह तरीका भी कई बार फेल हो जाता है. दरअसल अब दर्शक पहले से फिल्म के बारे में भांप लेते हैं. वे तमाम प्रचार के बावजूद कभी-कभी किसी फिल्म को देखने ही नहीं जाते. ‘काइट्स’ और ‘खेलें हम जी जान से’ इसके उदाहरण हैं. इन फिल्मों को दर्शकों ने रिलीज के पहले ही रिजेक्ट कर दिया था.
वैसे सही तरीका तो यही है कि किसी भी फिल्म के सार्वजनिक प्रदर्शन के बाद उसकी समीक्षा लिखी जा सकती है. सार्वजनिक प्रदर्शन का सीधा मतलब फिल्म की रिलीज तक सीमित न करें. यह फिल्म फेस्टिवल का प्रदर्शन भी हो सकता है या किसी विशेष आयोजन में दिखाया गया अवसर हो सकता है.
साभार : जागरण याहू
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