कुछ दशक पहले या यह कहें कुछ साल पहले तक सिनेमाघर ज्यादातर एक पर्दे के होते थे और उनमें दर्शकों की अच्छी खासी भीड़ नहीं आ पाती थी. लेकिन तब सिनेमाघर पर फिल्में लगती भी थी और बहुत जल्दी उतर भी जाती थी. फिर आया मल्टीप्लेक्स.
चकाचौंध रोशनी, एक ही थियेटर में एक ही समय कई फिल्में चलने लगी. नतीजन लोगों को क्वालिटी से साथ भरपूर मनोरंजन मिलने लगा. लेकिन वक्त के साथ मल्टीप्लेक्स ने भी अपना फायदा कमाने के लिए सिर्फ बड़ी फिल्में लगाना शुरु कर दिया है.
मल्टी प्लेमक्से के आने से सिनेमाकारों को अहसास हुआ कि जनता सिर्फ भीड़ नहीं है. बल्कि उसमें भी कई वर्ग हैं. और हर वर्ग एक अलग तरह का सिनेमा चाहता है. अब मुमकिन था कि इस तरह के वर्ग के लिए फिल्मेंम बनाई जाएं. फिल्में बनीं भी. हाल के दिनों में कम बजट और आम जनता से जुड़ी बहुत सी फिल्में आईं. कम बजट और बिना किसी नामचीन कलाकारों के भी कई फिल्में काफी अच्छा-खासा काम कर जाती हैं.
अब बात आती है क्षेत्रीय फिल्मों की तो इस क्षेत्र में भी मल्टीप्लेक्स के बाद काफी बदलाव आया और एक तरह की तेजी भी. मल्टीप्लेक्स आने से क्षेत्रीय फिल्में भी अन्य हिस्सों में देखी जाने लगी हैं.
हालांकि अब कई मल्टीप्लेक्स मालिकों ने अपने शो में बदलाव कर लिए हैं. अगर बड़े प्रोडक्शन हाउस या कॉरपोरेट हाउस की चर्चित और अपेक्षित फिल्म रिलीज हो रही हो, तो पहले से चल रही फिल्मों के शोज आगे-पीछे कर दिए जाते हैं. कई बार उन्हें उतार भी दिया जाता है, ताकि नई फिल्म को ज्यादा से ज्यादा शो मिल सकें. सिंपल लॉजिक है कि अगर नई फिल्म अस्सी प्रतिशत बिजनेस दे सकती है, तो क्यों पहले से चल रही फिल्म के 30-35 प्रतिशत के बिजनेस से संतुष्ट हुआ जाए. एक व्यापारी के लिए यह फैसला फायदेमंद है, लेकिन छोटे निर्माताओं को दर्शकों का नुकसान होता है. एक इंटरव्यू के दौरान गोविंद निहलानी ने बताया था कि उनकी फिल्म द्रोहकाल मुंबई के मेट्रो थिएटर से एक हफ्ते के बाद उतार दी गई थी, जबकि उसे दर्शक मिल रहे थे. वास्तव में अगले हफ्ते एक बड़ी कॉमर्शियल मसाला फिल्म रिलीज हो रही थी, इसलिए वितरक और प्रदर्शक ने द्रोहकाल को उतारने में जरा भी देर नहीं की. मल्टीप्लेक्स थिएटरों के दौर में ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन चलता रहता है, लेकिन शोज की टाइमिंग ऐसी कर दी जाती है कि कई बार चाह कर भी दर्शक फिल्म नहीं देख पाते.
आज के समय में हर प्रांत में हर भाषा के लोग रहते हैं जैसे दिल्ली में भोजपुरी मिल जाएंगे तो बिहार में पंजाबी, अब ऐसे में प्रांतीय फिल्मों को जल्दी हटा देने से दर्शकों को वह मनोरंजन नहीं मिल पाता है.
पर एक बात और समझने वाली है कि मल्टीप्लेक्स थिएटर की नेशनल चेन हैं. उनकी फिल्मों के चयन और प्रदर्शन के फैसले मुंबई या दिल्ली में बैठ कर लिए जाते हैं. उन्हें स्थानीय दर्शकों की पसंद की जानकारी नहीं रहती.
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