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सेंसर बोर्ड की चिंताएं

पिछले दिनों शर्मिला टैगोर ने मुंबई में फिल्म निर्माताओं के साथ लंबी बैठक की। अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने अपने विचार शेयर किए और निर्माताओं की दिक्कतों को भी समझने की कोशिश की। मोटे तौर पर सेंसर बोर्ड से संबंधित विवादों की वजहों का खुलासा किया। उन्होंने निर्माताओं को उकसाया कि उन्हें सरकार पर दबाव डालना चाहिए ताकि बदलते समय की जरूरत के हिसाब से 1952 के सिनेमेटोग्राफ एक्ट में सुधार किया जा सके। उन्होंने बताया कि उनकी टीम ने विशेषज्ञों की सलाह के आधार पर दो साल पहले ही कुछ सुझाव दिए थे, किंतु सांसदों के पास इतना वक्त नहीं है कि वे उन सुझावों पर विचार-विमर्श कर सकें। उनके इस कथन पर निर्माताओं को हंसी आ गई।


केंद्र के स्वास्थ्य मंत्रालय ने सीबीएफसी (सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) को हिदायत दी थी कि किसी भी फिल्म में धूम्रपान के दृश्य हों, तो उसे ए सर्टिफिकेट दिया जाए। सीबीएफसी ने अभी तक इस पर अमल नहीं किया है, क्योंकि सीबीएफसी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन आता है और उसने ऐसी कोई सिफारिश नहीं की है। शर्मिला टैगोर ने उड़ान और नो वन किल्ड जेसिका के उदाहरण देकर समझाया कि कैसे इन फिल्मों में धूम्रपान के दृश्य थे और वे किरदारों के चरित्र निर्वाह की लिहाज से आवश्यक थे। अब अगर उन दृश्यों को काट दिया जाता तो निश्चित ही फिल्म का प्रभाव कम होता। उन्होंने बताया कि समझदार निर्देशक स्वयं ही दिशा निर्देशों का खयाल रखते हैं और संयम से काम लेते हैं।


बैठक में मौजूद आमिर खान ने रोचक सलाह दी कि जिन फिल्मों में हम स्टार धूम्रपान के दृश्य करते हैं, उन फिल्मों के लिए हम 30 सेकेंड का एक संदेश भी डालें कि धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और इस फिल्म में धूम्रपान के दृश्य चरित्र और कहानी की जरूरत को ध्यान में रखकर डाले गए हैं। उनकी इस नेक सलाह का शर्मिला टैगोर समेत बैठक में मौजूद निर्माताओं ने स्वागत किया। जोया अख्तर ने इस प्रकार की कोशिशों पर ही सवाल उठाया। उनका सवाल था कि अगर धूम्रपान समाज में गैरकानूनी हरकत नहीं है, तो उसे फिल्मों में दिखाने या न दिखाने पर बहस क्यों चलती है? हम क्यों समाज के गार्जियन बन जाते हैं? आज के समाज में किशोरों के एक्सपोजर का लेवल बढ़ गया है। अभी वे अपनी मर्जी से लाइफ स्टाइल चुनते हैं।


राजकुमार हिरानी ने बताया कि लगे रहो मुन्नाभाई लिखते समय वे इस तथ्य को लेकर चिंतित थे कि फिल्म में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का संदर्भ है। मालूम नहीं कि सेंसर बोर्ड के सदस्यों का क्या रवैया हो? हालांकि उन्हें अपनी फिल्म को लेकर कोई दिक्कत नहीं हुई, फिर भी उनका सुझाव था कि अगर सेंसर बोर्ड ऐसी सुविधा प्रदान करे या ऐसी कोई समिति बनाए, जहां लेखक-निर्देशक अपनी शंकाओं का निराकरण कर सकें तो फिल्म बनाने के बाद दृश्य काटने के भारी नुकसान और मेहनत से बचा जा सकता है। उनके इस सुझाव को व्यावहारिक मानने के बावजूद सीबीएफसी के अधिकारियों ने कहा कि फिलहाल यह संभव नहीं है। शायद उन्हें मालूम नहीं कि इन दिनों नाटकों के प्रदर्शन के पहले उनकी स्क्रिप्ट पर अनापत्ति प्रमाणपत्र लेना पड़ता है। अगर कोशिश की जाए तो फिल्मों की स्क्रिप्ट की पड़ताल का तरीका निकाला जा सकता है।


दरअसल, समाज के साथ-साथ सिनेमा भी तेजी से बदल रहा है। अभी हर तरह की फिल्में बन रही हैं। जरूरत है कि संबंधित मंत्रालय और सांसद फिल्म संबंधित सिनेमेटोग्राफ एक्ट में आवश्यक सुधार करें। निर्माताओं को इस दिशा में पहल करनी होगी। उन्हें दर्शकों को भी जागृत करना होगा कि वे वास्तविक स्थितियां समझ सकें। सुधारों के साथ-साथ सरकार को इसका भी खयाल रखना होगा कि सेंसर बोर्ड के प्रमाणन के बाद होने वाली आपत्तियों से वह कानून और व्यवस्था के तहत निपटे। किसी एक व्यक्ति, समुदाय या समूह की आपत्ति से फिल्मों का प्रदर्शन न रुके।

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