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बॉलीवुड में एक्टिंग करने से पहले ये एक्टर थे चौकीदार, जानिये इनकी कहानी

बाल्यावस्था सपनों को जन्म देने की अवस्था कही जा सकती है. एक ऐसी अवस्था जब बालमन जिंदगी में खिंची आड़ी-तिरछी रेखाओं की हकीकत से अंजान अपने लिए सुनहरे सपनों की एक दुनिया संजोता है. वह उसमें सोता और जीता है. लेकिन ज्यों-ज्यों तरूणाई अंगड़ाई लेती है बाल्यावस्था के सपनें इन आड़ी-तिरछी रेखाओं के घर्षण से दम तोड़ने लगते हैं. ये किसी भी समाज के अधिकांश लोगों की हकीकत है. लेकिन कुछ बिड़ले ऐसे होते हैं जो इन आड़ी-तिरछी उलझी रेखाओं के घर्षण से जूझते हुये अपने मन के सपनों को दम तोड़ने नहीं देते. अपनी जीवट दृढ़शक्ति से ये सपनों की लौ को आँच देते रहते हैं. फिर जीवन में एक मोड़ ऐसा भी आता है जब वो अपने सपनों को इन आड़ी-तिरछी उलझी रेखाओं पर विजय प्राप्त करते देखते हैं. ऐसे ही एक बिड़ले की कहानी जिसने युवावस्था में रूपहले पर्दे पर दिखने का सपना संजोया और उसे मुकाम तक पहुँचाने में सफल भी हुये.



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मुज़फ्फरनगर के बुधना के एक किसान परिवार में जन्मे नवाज़ुद्दीन सिद्दिकी अपने माता-पिता के नौ बच्चों में से एक हैं. थियेटर छोड़कर बुधना में तीन चीज़ें अहमियत रखती है गेहूँ, गन्ना और बंदूक. ऐसे में सिद्दिकी ने अपने परिवार को छोड़कर बाहर जाने का मन बना लिया है. बड़ौदा में पढ़ाई करने के बाद उन्होंने रसायनशास्त्री का काम किया. बाद में उनका मन थियेटर की तरफ आकर्षित हुआ. लेकिन जैसा समाज का स्वभाव होता है वही उनके साथ भी हुआ. जानने वालों में से बहुतेरों ने अपने व्यंग्य बाणों से कहा, ‘क्या हीरो बनेगा!’ इसकी परवाह न करते हुये उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अपना नामांकन कराया. नाटकों में पैसा और चकाचौंध के अभाव का प्रभाव सिद्दिकी पर भी पड़ा. पैसों के अभाव के कारण उन्होंने चौकीदार की नौकरी कर ली. चौकीदारी से मिले पैसे जीने के लिए जरूरी थे. दूसरी ओर वो नाटकों के द्वारा अपने अभिनय के हुनर को तराश रहे थे.


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लेकिन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के बाद भी उनका सपना पूरा होता न दिखाई दिया. चार वर्षों तक दिल्ली और उसके बाद मुंबई में काम करते हुये कई बार उन्हें लगा कि वो अपना समय बेवजह नष्ट कर रहे हैं. ये सोच मन को तब और कचोटती जब उन्हें कहीं-किसी भूमिका के लिये कह दिया जाता और फिर अकारण ही उसके लिये मना भी कर दिया जाता. कभी-कभी मन में बॉलीवुड में गोरे-चिट्टे और रईसों के आसान प्रवेश की काली सच्चाई उन्हें अपने काले-कलूटे रंग और पतले-दुबले कद को लेकर नकारात्मक सोचने पर विवश कर देती थी. लेकिन उन्होंने हार न मानी और अपने सपनों के लौ को आँच देते रहे.



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इसी बीच कुछ फिल्में प्रदर्शित हुई जिनमें उन्होंने अभिनय किया था. लेकिन दर्शकों के एक बड़े तबके के अल्पावधिक स्मृतियों ने उनके अभिनय को सहेजने लायक नहीं समझा. शूल, सरफ़रोश, मुन्नाभाई एमबीबीएस इत्यादि कुछ ऐसी ही सिनेमा रही जिसमें उनके अभिनय को जगह तो दी गई लेकिन काबिलियत को सही नहीं आँका गया. इससे उनके सपनें तनिक विचलित तो हुये लेकिन बुझे नहीं. कुछ समय पहले आई सिनेमा ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘तलाश’ और हाल ही में सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई सिनेमा ‘बदलापुर’ उनके अभिनय के हुनर कको पहचानता, उनकी कद्र करता दिखता है. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ तो उनके अब तक के सिनेमाई करियर की यादगार सिनेमाओं में से एक रही है जिसके संवाद बच्चों और युवाओं की ज़ुबान से अब तक हटने का नाम नहीं ले रहे हैं. इस तरह बुधना का एक नौजवान ‘बदलापुर’ के रास्ते अपने हौसलों की बदौलत चमकता सूरज बन चुका है जिसके प्रकाश की तेज किरणों से बॉलीवुड की स्याह पक्ष धुंधली पड़ती जा रही है. Next…




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