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शब्दों की कंगाली से जूझता हिंदी सिनेमा…

चकाचौंध से परे, ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्मों का वो ज़माना भी अजीब था, जब पर्दे पर ना तो रंग दिखते थे और ना ही कोई तड़क-भड़क. अगर कोई चीज़ शुरू से अंत तक दर्शकों को बांधे रखती थी, तो वो थी कलाकारों की संवाद आदायगी, उनके भाव और बेहतरीन नगमें.


नगमें, जो आज भी लोगों की पहली पसंद हैं उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन गीतों के बोलों के साथ छेड़छाड़ किए बगैर, इन्हें रिमिक्स करके अर्थात नए प्रबंध के साथ आज की फिल्मों का हिस्सा बनाया जा रहा है. इतना समय बीतने के बाद भी इनकी लोकप्रियता कम ना होने के पीछे सबसे बड़ा कारण गीतकार की अपने काम के प्रति संजीदगी और भरपूर शब्द-ज्ञान का होना है. गीत लिखना या उसकी रचना करना एक बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है और जिसकी वजह से इतना समय बीतने के बाद भी वह गाने सुनने में उतने ही ताज़ा और नए लगते हैं कि बड़े तो बड़े बल्कि युवा भी उन नगमों को गुनगुनाते हुए मिल जाएंगे.


postersपर समय के साथ-साथ फिल्मी गानों का रूप भी बदला है, और जो गानें हम पर समय के साथ-साथ फिल्मी गानों का रूप भी बदला है, और जो गानें हम आज सुन रहे हैं, कुछ को छोड़ दें तो सब के सब एक नई तरह की फूहड़ संस्कृति को बढ़ावा देने में अपना पूरा सहयोग दे रहे हैं. अजीब और भद्दे शब्दों का प्रयोग तो जैसे आज फिल्मी प्रचलन बन गया है, साथ ही गानों को अब गाली का रूप भी दिया जाने लगा है. कई गानें तो इस हद तक भद्दे बन पड़े हैं कि परिवार के साथ इन्हें देखना भी असंभव है. इसके अलावा कई फिल्मों के नाम भी बेहद घटिया व अशिष्ट हैं.


इन बेहूदा और ओछे शब्दों के प्रयोग के पीछे दो कारण हो सकते हैं, पहला गीतकारों की अतिव्यस्तता क्योंकि पहले जहां महीने दो महीने में एक फिल्म रिलीज होती थी आज वहीं हर हफ्ते ढेरों फिल्में प्रदर्शित होती हैं. इस कारण गीतकार किसी एक फिल्म या गानें पर अधिक समय नहीं दे पाता और दूसरा कारण है संबंधित भावनाओं की कमी जिसके चलते गीतकार उन मनोभावों को खुद से जोड़ नहीं पा रहा है या फिर भाषा-ज्ञान की कमी, जिसके फलस्वरूप उसे शब्दों की कंगाली का सामना करना पड़ रहा है जिस कारण बेतुके और भद्दे शब्दों का चलन जोर पकड़ रहा है.


आजकल की फिल्मों में जिस तरह के शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है उनकी वजह से समाज में शालीनता और शिष्टता की कमी आने लगी है. आधुनिक प्रयोगों के नाम पर आज की युवा पीढ़ी के साथ बेहूदा खेल खेला जा रहा है. क्योंकि व्यक्ति जो सुनता और देखता है उसका सीधा असर उसके व्यवहार पर पड़ता है और उसका व्यवहार ही समाज में उसकी भूमिका तय करता है.



फिल्म के गानें उसके लिए रीढ़ की हड्डी का काम करते हैं. फिल्म की सफलता काफी हद तक उसके गानों की लोकप्रियता पर निर्भर रहती है, इसी कारण फिल्म रिलीज से पहले गानों को लोगों के बीच लाया जाता है. फिल्म समीक्षकों का मानना है कि गानों को लोकप्रिय बनाने के लिए जरूरी है कि उनका प्रबंधन इस प्रकार से किया जाय कि वह जल्दी से जल्दी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच सकें और ऐसे शब्द गलत ढंग से ध्यानाकर्षित करते हैं. और सफलता पाने का इससे बेहतर शॉर्ट कट तो कोई हो नहीं सकता. अपने नैतिक और सामाजिक कर्तव्यों को भुला निर्माता, निर्देशक केवल पैसों को अहमियत देने लगे हैं. इसके अलावा एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ में गीतकार अपनी सामाजिक भूमिका को भूलते जा रहे हैं.


एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति फिल्म के नायक को अपना आदर्श समझने लगता है और कभी-कभी फिल्म की कहानी को खुद से जोड़ने भी लगता है साथ ही उसी की तरह बोलने और व्यवहार करने लगता है. इस आधार पर फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों के उत्तरदायित्व को समझा जा सकता है.


यह स्वाभाविक है कि जो चीज़ आपको बार-बार सुनाई या दिखाई जएगी, आज नहीं तो कल आपको उसकी आदत पड़ ही जाएगी. और आपकी इन्हीं आदतों को आपकी पहचान बनने में ज्यादा समय नहीं लगता. बेहतरे है ऐसे गानों और फिल्मों को नकारा जाए जो समाज की जड़ों को खोखला कर रही हैं. हां, इसका तुरंत तो कोई असर नहीं पड़ेगा, पर इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि बदलाव की शुरुआत कहीं से तो होनी ही चाहिए.



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