दिन के अंत में ऑफिस,कॉलेज या शाम को आराम से बैठकर टीवी देखते समय हम सभी इस आस में रहते हैं कि काश कुछ हल्का-फुल्का और साफ-सुथरा देखने को मिले. जब टीवी पर केबल नहीं था तब तो यह मुमकिन होता था लेकिन जैसे-जैसे केबल आया और लगा कि मनोरंजन के साधन ज्यादा होने लगे हैं वैसे-वैसे उसके दुष्परिणाम भी सामने आते गए. आज हालात ऐसे बन गए हैं कि शाम को टीवी खोलो तो रियलिटी शोज और कॉमेडी के नाम पर फूहड़ता और अश्लीलता का ऐसा मिश्रण मिलता है कि मिजाज हल्का होने की बजाय और भारी हो जाता है. टीवी शो से बच जाओ तो फिल्मों में भी फूहड़ता और अश्लीलता चरम पर नजर आती है.
अगर हम फिल्मों की बात करें तो पाएंगे कि आज भी फिल्में किस कदर आगे जा चुकी हैं. बच्चों के सामने देखने से पहले मन में कई बार सोचना पड़ता है. बाजार और अश्लीलता इस कदर मनोरंजन पर हावी हो चुकी है कि अच्छी से अच्छी फिल्में भी अश्लील संवादों से बच नहीं पाई. हाल ही में आई “थ्री इडियट” के एक संवाद में जिस तरह बलात्कार और अन्य शब्दों का प्रयोग हुआ क्या उसे अगर आप किसी बड़े या अपने छोटे बच्चों या भाई बहनों के साथ बैठकर देख-सुन सकते थे. यह हाल था एक अच्छी-खासी फिल्म का जिसके नायक से लेकर निर्देशक तक सब बड़े नाम वाले थे. अब ऐसे में छोटे कलाकारों और बाकी की फिल्मों का क्या हाल होगा.
अगर आपको नई और थोडे ऊंचे स्टैंडर्ड की गालियां सीखने का मन हो रहा हो तो अभी हाल ही में आई गोलमाल-3 को देख लीजिए. और उसे ही क्यों आजकल आने वाली हर हास्य या एक्शन फिल्में गालियों के बिना अधूरी सी लगती हैं. संवादों में अश्लीलता और भी चरम पर होती है.
लेकिन इसकी मुख्य वजह है क्या? आज संवाद लेखक इस बात को करने को मजबूर है. अश्लीलता परोसे बिना निर्देशक को लगता है कहानी अधूरी है और इसे पूरा करने के लिए द्विअर्थी संवादों का सहारा लिया जाता है. बॉलिवुड में इस समय गुलजार, अदिति मजूमदार जैसे कई मशहूर और प्रतिभाशाली लोग हैं लेकिन उनके ऊपर इतना दवाब रहता है कि वह अपने मन मुताबिक काम कर ही नहीं पाते. गुलजार ने तो यह बात “इश्किया” फिल्म के संदर्भ में खुलकर मानी भी और कहा कि वह लोगों को वही चीज पेश करते हैं जिसके लिए उनसे कहा जाता है.
आज नैतिकता बीप की आवाज के नीचे कराह रही है और गालियों को संस्कृति बनाने का खेल चालू है. देखते हैं ऐसे प्रतियोगिता के दौर में क्या कोई संस्कृति का ख्याल रख पाता है.
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