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घर जब बना लिया तिरे दर पर, कहे बिग़ैर
जानेगा अब तू न मिरा घर कहे बिग़ैर
कहते हैं, जब रही न मुझे ताक़ते सुख़न
जानूं किसी के दिल की मैं क्योंकर, कहे बिगै़र
काम उससे आ पड़ा है, कि जिस का जहान में
लेवे न कोई नाम, सितमगर कहे बिग़ैर
जी ही में कुछ नहीं है हमारे वगरना हम
सर जाये या रहे, न रहें पर कहे बिगै़र
छोड़ूंगा मैं न, उस बूते- काफ़िर का पूजना
छोड़े न खल्क़ गो मुझे काफिर कहे बिगैर
मक़सद है नाजो़-गम्जा, वले गुफ्तगू में, काम
चलता नहीं है दश्न-ओ-खंजर कहे बिग़ैर
हरचंद, हो मुशाहिद-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
बनती नहीं है, बादा-ओ-सागर कहे बिगैर
बहरा हूं मैं, तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
सुनता नहीं हूं बात, मुकर्रर कहे बिग़ैर
‘ग़ालिब’, न कर हुजूर में तू बार-बार अर्ज़
जा़हिर है तेरा हाल सब उन पर, कहे बिग़ैर
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एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़गान-ए-यार था
अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू
तोड़ा जो तू ने आईना तिम्सालदार था
गलियों में मेरी नाश को खेंचे फिरो कि मैं
जाँ दाद-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था
मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल
हर ज़र्रा मिस्ले-जौहरे-तेग़ आबदार था
कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब
देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार था
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फिर इस अंदाज़ से बहार आई
फिर इस अंदाज़ से बहार आई
के हुये मेहर-ओ-माह तमाशाई
देखो ऐ सकिनान-ए-खित्ता-ए-ख़ाक
इस को कहते हैं आलम-आराई
के ज़मीं हो गई है सर ता सर
रूकश-ए-सतहे चर्ख़े मिनाई
सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब पर काई
सब्ज़-ओ-गुल के देखने के लिये
चश्म-ए-नर्गिस को दी है बिनाई
है हवा में शराब की तासीर
बदानोशी है बाद पैमाई
क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी “ग़ालिब”
शाह-ए-दीदार ने शिफ़ा पाई .
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दोनों जहाँ देके वो समझे ये ख़ुश रहा
दोनों जहाँ देके वो समझे ये ख़ुश रहा
यां आ पड़ी ये शर्म की तकरार क्या करें
थक थक के हर मक़ाम पे दो चार रह गये
तेरा पता न पायें तो नाचार क्या करें
क्या शमा के नहीं है हवा ख़्वाह अहल-ए-बज़्म
हो ग़म ही जां गुदाज़ तो ग़मख़्वार क्या करें
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