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तुम्हारी कहानी १

The Show Must Go On
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तुम्हारी कहानी १

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प्रस्तावना

आत्मकथन शैलीमे लिखी गयी ये कहानी काल्पनिक है. इसमें निरूपण किये गए पात्र भी मेरे मनोजगत की कल्पना है. कही किसीके साथ इनकी समानता देखनेको मिले तो ये मात्र संजोग की बात है. इतना अवश्य कहूंगा की इन पात्रो के आलेखन में मैंने कही कही मेरे अवलोकनों का सहारा लिया है. फिल्म और टेलीविज़न के लेखक निर्देशक होनेके कारन मेरे जीवनमे जन सम्पर्ककी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. समाजके विभिन्न क्षेत्रोंके व्यक्तियोंसे मिलनेका मुझे अवसर मिलता रहा है. मनुष्य स्वभाव और आचरण अक्सर कल्पनसे भी अधिक दिलचस्प पाए जाते है. इसलिए काल्पनिक पात्रको उभारने के लिए भी किसी वास्तविक जीवनमें मिले मनुष्यकी विशेषता मेरे पात्रालखनमे घोलनेसे मैं अपने आपको नहीं रोक पाता.

अक्सर महिलाएं मुझे अपने जीवनके दर्द बताती है और विनंती कराती है की कभी न कभी उनके अंतर्मनमे रही कसक को किसी किरदार के माध्यम से लोगों के सामने उजागर करूँ. बीसवीं शताब्दीके उत्तरार्ध के आखरी दो दशकसे ही सफलताकी अंधी दौडका दौर आरम्भ हो चुका था. पढ़े लिखे लडके लड़कियाँ अपने जीवन साथी का चुनाव भौतिक संसाधन प्राप्तिके एक अहम साधनकी तरह करने लगे थे. वर्तमान समयमे यह दौड़ और भी तेज़ हो गयी है. “मनुष्य भावनाओं का दरिया है” यह हकीकत पूरी तरह से दरकिनार कर दी जाती है. परीणाम स्वरूप दाम्पत्य जीवनमे विसंवादिता पनपने लगाती है और इसका किसीको ध्यान भी नहीं रहता. आज यह समस्या बहोत बड़ा रूप धारण कर चुकी है. चरमराते दाम्पत्य जीवन और तलाक आम बात हो चुके है.

इस कहानी में ऐसे ही एक दम्पतीके माध्यमसे मैंने नारीके मनकी अनकही कहनेका प्रयास किया है. उम्मीद है आपको मेरी यह कहानी पसंद आएगी.

श्याम शाह

वह दिसंबर महीनेके आखरी सप्ताहकी एक सर्द शाम थी. रातके करीब आठ बजे होंगे. वह छोटासा सुन्दर शहर जल्दी शांत हो जाता था. जहां तक मैं जानता हु यहाँ बहोत साल पहले राजपुर नामक एक छोटा सा गाँव हुआ करता था. भारतकी स्वतंत्रताके बाद जब नए राज्यों का गठन हुआ तब यहांसे पचास किलोमीटर दूर आये शहरको नव गठित राज्यकी राजधानीका दर्जा प्राप्त हुआ. राजधानी के विकास का असर इस गाँव पर भी पड़ा और समय के साथ राजपुर गांव राज नगर में परिवर्तित हो गया. राज नगर राज्यकी राजधानी न होते हुएभी सत्ताका केंद्र बनता चला गया. राज्यके हर बड़े नेता और उच्च पदाधिकारीके निजी निवास यहाँ बनते चले गए. बड़े बड़े उद्योग गृहोने अपने कॉर्पोरेट गेस्ट हाउस और ऑफिस यहाँ खोल रखे थे. अब यह आलम था की राज नगर सही मायनेमें राज नगर बन चूका था. कारके बंद शीशोंके उस पार दिख रहे बड़े बड़े आवासोंको देखकर मैंने सोचा कि शांत दिखनेवाले इस शहरके इन आवासोंमें इस वक्त कितनी महत्वपूर्ण घटनाएं घट रही होंगी? सत्ताके गलियारोंमे रातके अंधेरेका अपना एक रुतबा होता है यह मैं अच्छी तरहसे जानता था. बतौर फिल्म लेखक दिग्दर्शक पूरा जीवन बिताया था मैंने. मेरे कई दोस्त राजनीती और अमलदारशाही में अग्रस्थान पर स्थित थे. उन लोगोंके पाससे बातचीतमें सत्ताके कारोबारके कई तौरतरीके जाने थे मैंने. ये अलग बात है कि सत्ताके गलियरोमे कदम रखनेका शौक मुझे कभी नहीं रहा. लेकिन उसके बारेमे जाननेकी इच्छा हमेशा रही है. सत्ताका कारोबार मुझे हमेशा शतरंजके खेलकी तरह दिलचस्प लगा है.

“कभी मौका मिला तो राजनीतिकी पार्श्वभूमि पर मैं कोई फिल्म बनाऊंगा.” मैंने सोचा.

तेज रफ्तारसे दौड़ती कारमें बैठे बैठे फिल्मके लिए कहानी सोचना मेरी आदत रही है. मानो कारकी गति के साथ साथ मेरे विचारभी गतिशील हो जाते है.

“आगेके क्रॉसिंगसे राइटमें लेना.” मैंने अपने ड्राइवरसे कहा.

मैं जानता था कि उसे मालूम है कि हमें कहाँ जाना है क्योंकि वो पहले मेरे साथ वहां कई बार आ चूका था. बहादुर, मेरा ड्राइवर, पच्चीस सालोंसे मेरी कार ड्राइव कर रहा था.

“लेकिन सर, क्या वो लोग अब भी??? मेरा मतलब है अब कौन मिलेगा वहां?” बहादुरने पूछा.

“धम्मा दादा. वो हमारा इंतज़ार कर रहे हैं.” मैंने कहा.

हम जहां जा रहेथे उस बंगलेमे रहने वाले सबको बहादुर जनता था. ज़्यादा सवाल करना उसकी आदत नहीं थी. कार अपनी द्रुत रफ़्तार से इस वी.आई. पी. नगरकी बहेतरीन सड़क पर आगे बढ़ रही थी. दूरसे ही उस बंगलेके बड़ा दरवाज़ा देख कर बहादुरने कारकी गति धीमी की. कंपाउंड वाल के पीछेसे अपनी छटा बिखेरते पलाश और अशोक वृक्ष इस मकानको एक विशिष्ट चरीत्र प्रदान करते थे.तकरीबन बीस साल पहले मैं यहाँ पहलीबार आया था. आखरी बार कब आया था ये याद करनेकी मैं कोशीश कर रहा था.

“सर, हम तकरीबन सत्रह साल बाद इस बंगलेमें जा रहे हैं.” बहादुर बोला. जैसे उसने मेरे मनको पढ़ लीया हो.

“सत्रह साल. कितनी तेज रफ़्तारसे गुज़र गए ये सत्रह साल!” मैंने मन ही मन सोचा.

तभी बंगलेके दरवाज़ा खुला. उस जमानेमे दरवाज़ेके पास बनी कॅबिनमें दो बन्दुकधारी गार्ड चौबीस घंटा तैनात रहते थे. क्यों न हो? यह अत्यन्त प्रतिष्ठित दो सरकारी अफसरोंका आशियाना था. राज्यके मुख्य मंत्रीजी के अत्यन्त करीबी सनदी अधिकारी और उनकी पत्नी, जो स्वयंभी उच्च पद पर आसीन अधिकारी थी. विशाल वन सम्पदा वाले ईस राज्यके जंगलोंके एक बहोत बड़े हिस्से पर ईस नारी की हुकूमत थी. मैंने कारके बंद विंडोग्लासके उस तरफ धम्मा दादाको देखा. उन्होंने मुझे हाथ जोड़कर नमस्ते किया और बहादुरको कार सीधे ले जानेका ईशारा किया. मैंने देखाकी वहां अब कोई गार्ड नहीं था. हरेभरे बगीचेके बीच बने ड्राइव वे से होकर कार बंगलो के मुख्य द्वारके सामने बने पोर्चमें रुकी.

कारमें से उतरकर मैंने उस सुन्दर आवासके मुख्य द्वारकी ओर देखा. मैं जानताथा की वो नहीं आएगी बाहर. यहीतो उसकी हमेशा की आदत रही है. कभी भी ये नहीं जताना कि वो मेरी राह देख रही है. उसका यह नाटक उस क्षण तक चलता जब तक मैं अंदर जाकर उसके सामने खड़ा नहीं रहता. एक बार हमारी आँखें मिलती फिर उसके होठों पर और आंखोंमें खुशीका सैलाब आता और वो बोल उठती,

“सो यू आर हियर.”

“यस. आई एम हियर.” मैं मुस्कुराकर जवाब देता.

और आजतो वैसे भी कोई जूठी उम्मीद करनाभी असम्भव था क्यूंकि मैं जानता था कि वो बाहर नहीं आएगी. एक तरहसे आज मैं उसके बुलावे पर ही यहां आया था. वैसे तो पहले भी कई बार मैं उसके बुलावे पर ही यहां आया था पर वो कभी भी दरवाज़े पर मेरा स्वागत करने नहीं आई थी. हमेशा धम्मा दादा ही मुझे सबसे पहले मिले थे. और आज? आज तो वो बाहर आये ये सोचनाभी मूर्खता होगी. फिरभी नजाने क्यों ऐसा लग रहा था कि वो अंदरसे मुझे छुप छुप कर देख रही है. अनायास मेरी नज़रोने उस विशाल कम्पाउन्डका मुआयना किया. वो सारे पेड़ आज भी वहां मौजूद थे जो सत्रह साल पहले थे. लेकिन अब वो उतने हरे भरे नहीं थे. “शायद यह पतझड़ का मौसम है ईस लिए.” मैंने मन ही मन सोचा. तभी मेरी निगाह कम्पाउन्डके वायव्य कोनेमे टिकी. वहां वो गुलमहोरका पेड़ था. पतझडमे भी अपना पूरा शबाब बिखेरता हुआ. बीस साल पहले उसने अपने हाथोंसे उसका पौधा लगाया था और मैंने अपने हाथोंसे उसे पहेली बार पानी दिया था. अचानक मुझे लगा कि वो उसके नीचे गार्डेन चेयरमें बैठकर मुझे देख रही है. मेरे मनमे उसी क्षण संवेदनाओंका जैसे चक्रवात सा उठा और मेरी आँखे अतितकी यदोंसे नम हो उठी. आँखोंके किनारोंसे रिसनेको तैयार भवनाओंकी बूंदोंको मैंने हलकेसे अपने दाहिने हाथकी अनामिकासे पोंछ डाला. तभी धम्मा दादाकी आवाज़ मेरे पीछे से आई,

“आप भी उन्हें कभी भुला नहीं पाये साहब?” उनका प्रश्न स्वयं ही जवाब था.

मैंने उनकी ओर देखा. वो और बहादुर मेरा सामान लेकर मेरे पीछे खड़े थे. दोनोकी आँखे नम थीं.

सत्रह साल के लम्बे अंतरालके बाद उस घरके मुख्य द्वार तक ले जाते पायदानोंकी ओर मैंने कदम बढाए. मैरून ग्रेनाइटसे बने वो पांच पायदान आज भी वैसेही दिखाई देते थे जैसेकि बरसों पहले. हाँ, उनकी चमक हल्कीसी धूमिल पड गई थी.

जैसे जैसे मेरे कदम बढ़ते गए, मेरा ये अहसास कि वो मुझे देख रही है, दृढ़ होता गया. आज से तक़रीबन एक सप्ताह पहले मुझे उसका खत मिला था जिसमे उसने मेरा बरसों पहले किया वादा याद दिलाते हुए यहां आनेका न्योता दिया था. उसमे धम्मा दादा का मोबाइल नंबर भी था. बंगलेके विशाल दरवाज़ेके पास पहुंच कर मेरे कदम रुक गए. अपने जैकेटकी जेबसे मैंने वो खत निकाला और धम्मा दादाको दिखाया.गम्भीरता पूर्वक अपना सर हिलाकर उन्होंने मुझसे कहा,

“आप अंदर जाईये साब. मैडम आपका इंतज़ार कर रही है.” बोलते समय बड़े प्रयास से उन्होंने अपनी भावनाओं पर काबू पाया.

उनकी ये बात सुनकर सामान लेकर पायदान चढ़ रहा बहादुर अपना संतुलन खोते खोते बचा. मैंने अपने कदम आगे बढाए. दिवान खण्ड (ड्रॉईंग रूम) से पहले बने प्रकोष्ठमे (फ़ोयर) मैंने अपने जूते उतारे. तभी धम्मा दादाने मेरे पैरोंके पास स्लिपर्स रख दिए. हमेशा की तरह. मैंने उनकी ओर देखा. ईतने सालों बादभी उन्होंने ईस बात का ध्यान रख था. तभी उन्होंने कहा,

“ये उन्हींका आदेश है. आपके पुराने स्लिपर्स आज भी उनकी अलमारीमें लकडेके बक्सेमे सम्हाल कर रखे हुए हैं. यह भी उन्होंने खुदने आपके लिए ख़रीदे थे. दो महीने पहले.”

अपनी भावनाओं पे संयम रखते हुए मैंने वो स्लिपर्स पहने और ड्रॉईंग रूमकि ओर आगे बढ़ा.

जैसेही मैं उस सजीले हॉलमे दाखिल हुआ, मैंने उसे देखा. वही कन्धों पर बिखरे घुंघराले बाल, बड़ी बड़ी स्वप्निल आँखें, मस्तीसे दमकता चहेरा और होठों पर मनमोहक मुस्कान. मेरे कदम रुक गए. मैं एक तक उसकी आँखोंको देखता रहा. सत्रह साल बाद ईस घरमे खड़े रहकर मैं उसे देख रहा था. सत्रह साल के ईस समय अंतरालके उस पार से उसकी शरारतें, बेबाकियां, मदहोशी, आक्रोश, दीवानापन, मगरूरी… सब कुछ तस्वीर बनके मेरी आँखोंके सामने और जज़्बात बनके मेरे ज़हनमें उभर आये. बरसों बाद उसे मैं देख रहा था. मेरी आँखोंके सामने. इसी हॉलमें खड़े रहकर. लेकिन…लेकिन.. उसे ईस तरहसे देखना होगा ये मैंने कभी नहीं सोचा था. वो मेरे सामने थी एक बड़ी तस्वीर के रूप में. एक बड़ी सी तस्वीर जिस पर चन्दन का हार चढ़ा हुआ था. वो हम सब को छोड़ कर जा चुकी थी. फिरभी मुझे उसने यहाँ बुलाया था. मुझे उसे दिया हुआ वादा निभाना था. ऐसा क्या हुआ होगा कि उसने अपना जीवन समाप्त करनेसे पहले मुझसे मिलना ज़रूरी नहीं समजा?
(क्रमश:)

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