Posted On: 5 Dec, 2014 Others में
101 Posts
238 Comments
कभी-कभी ख़्वाब भी
बिखरे पत्तों की
तरह होते हैं
कहीं भी-कभी भी
बहक जाते हैं
हवाओं से,
वजूद तो है
पर
बेमतलब
खोटे सिक्के की तरह
जो होता तो है
पर
चलता नहीं
पत्तों का क्या है
इकठ्ठे
हो सकते हैं
लेकिन ख़्वाब?
हों भी कैसे
इतने टुकड़ों में
टूटतें हैं
कि
आवाज तक नहीं आती.
टूटे ख़्वाब
दुखते तो हैं
पर
जोड़ने की
हिम्मत नहीं होती
जाने क्यों
खुद की
बनाई हुई
कमज़ोरी
हावी हो जाती है
खुद पर,
ख़्वाब सहेजे
नही जाते
जिंदगी कैसे
सम्भले
हम इंसानों से??
Rate this Article: