वंदे मातरम्
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भटक रहे हो मार्ग केशव! यहां से आगे
नहीं है राधा
मचा है मन में कैसा कलरव तुम्हारे
पथ में अनंत बाधा,
सहज से मन का मधुर सा भ्रम है कि तुम
सुपथ को कुपथ समझते
जहां-जहां तक ये दृष्टि जाए वहां-वहां
तक दिखेगी राधा।।
जो तुमको लगता है प्रेम सब कुछ तो प्रेम
सा कुछ नहीं है राधा
जगत का उपक्रम है योग केवल ये प्रेम
मानव के पथ की बाधा,
मैं मोक्ष लेकर भी क्या करुंगी मेरे तो
अधिपति हैं मेरे मोहन!
जो उनको ही मैं भूल बैठूं बताओ
कैसे रहूंगी राधा ??
– अभिषेक शुक्ल।।
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