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उलझन

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
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यूँ तो ख़ामोश हूँ मैं
पर
आती है आवाज़ कहीं से
मेरी ही
रह-रह कर:
घबराहट होती है
अपनी आवाज सुनकर,
तड़पता हूँ अक्सर
अपने दर्द से,
चोट भी मुझे लगती है
और चीख भी
मेरी निकलती है.
घुट रहा हूँ
पर
हस -हस कर.
क्या कहुँ?
रोना मक्कारी लगता है
हंसना
मुमकिन नहीं
टूटते रिश्तों को
जोड़ना मुश्किल है
और
तोडना और भी मुश्किल.
क्या करूँ ?
हसूँ
तो दुनिया,
रोऊँ तो दुनिया

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