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जीत लो जग का निश्छल प्यार

वंदे मातरम्
वंदे मातरम्
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नयन में उतर रहे कुछ स्वप्न
सार जिनका मुझसे अनभिज्ञ
आज और कल की ऊहापोह
अब कहाँ रहा मेरा मन विज्ञ ?

कई युग बीत गए हैं मित्र
यथावत रहा कहाँ संसार,
नित्य परिभाषाएं बदलीं
हुआ केवल मन का अभिसार.

यही है जीवित मन की शक्ति
यही मानव मन का उद्गार,
एक ही कर्म मनुज के योग्य
जीत लो जग का निश्छल प्यार .

-अभिषेक शुक्ल

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