Menu
blogid : 26919 postid : 22

गौ माता -हिंन्दुओ के दृष्टिकोण से भाग १

भरत का भारत
भरत का भारत
  • 1 Post
  • 0 Comment

भारतीय राजनीति वर्तमान परिस्थितिओं में हिंदुत्व के ध्रुवीयकरण के बिषम कोणों के तदानुपात में परवर्तित व स्पष्टता की ओर अग्रसर हैं। भाषा के शैब्दिक क्रमो में चेतन होने का अर्थ शायद भारतीय समाज यथार्थ देश की भौतिक परिस्थितियों में सजीवता को ढूढ़ने लगता है, परन्तु यथार्थ परिस्तिथियाँ हमारे समाज व मूल्यों के लिए आदर्शता का अनुभव नही करा पा रहीं हैं। सामान्य भाषा में कहुँ तो गौ शब्द जब कभी अख़बारों, न्यूज़-चैनलों, सोशल-मीडिआ इत्यादी माध्यमों से जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत होता है, तब प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति अपने-अपने विचारित संस्कारित गुणों के अनुसार अपनी -अपनी प्रतिक्रिया देने लगता है।

हम यहाँ पर इस्लामिक, वामपंथी, क्रिसियन व अधार्मिक विचारों की बात ना कर उन चेतन भ्रांन्तिक सनातन हिंन्दुओ की चर्चा करेंगे, जो मुख्यता गौवंश के पतन के लिए मुख्यता जिम्मेदार हैं। आप सोच रहें होंगे ये तो सरा-सर गलत बात है, हिंन्दु कैसे गौवंश के पतन का जिम्मेदार है? एक उदाहरण व प्रश्न दोनों ही एक साथ आप से पूछता हूँ, भारतीय सभ्यता में गौ को देवी व माता की उपाधी प्रदान की गयी है, आपको आभास भी है, माँ व देवी शब्दों से जुड़ी भावना कितनी पवित्र, चरित्रवान, सम्माननीय व पुज्य्नीय है? अब आप अपने मस्तिष्क्य के वैचारिक भाव में जा कर देखिये, प्रायः सरकारी तंत्रो की अनदेखी व कोई सशक्त नीतिज्ञ दृश्टिकोण ना होने के कारण, तथाकथित स्वतंत्रता (जो की ब्रिटिश-यूरोप का भारतीय ब्रिटिश-इंडिया के रूप में शक्ति, बाहूबल्य का स्थांनांतरण था) के उपरांत से ही कोई भी अध्याय गौशाला योजनाओं व देशी प्रजातियों को पुनः स्थापित व उनका नैतिक उत्थान की व्यवस्था किसी भी सरकार द्धारा अंगीगत नहीं किया गया।

सरकारी राजनीतिक विश्लेषण यहाँ हमारा मुख्य मुद्दा नहीं हैं, इस पर चर्चा का अर्थ इसलिए नहीं बनता या तो हिंन्दु समाज 1970 के उपरांत राष्ट्रीय गौ आंदोलन करता जिससे सत्ताधारिओं पर दवाब बनता और गौ हत्या, गौ संरक्षण व गौ संर्वेषण पर एक राष्ट्रीय कानून संसद से पारित हो संबैधानिक तंतुओ द्धारा संचालित होता अपितुः इसके विरुद्ध राजनीतिक पराजय से ध्यान हम स्वयं की जय पर लाते हैं! क्या हमारी जय हमारे स्वयं के कृत-कर्मों द्धारा हुई? अगर हिंन्दु वन्धुं-वान्धवों की जय हुई होती तो आज गौ माता सड़कों पर पड़ने वाला केमिकलयुक्त दूषित कचरा खाने पर मजबूर ना होती, एक समय पशुपालन सिर्फ आर्थिक नहीं किंंन्तु भावनात्मक कला थी, जिसका पालन अपने पूर्वज कल्पांन्तरो से करते आ रहे हैं, परन्तुं आज सामान्यतः शहरों में गाय को सूर्य काल में स्वतंंन्त्र कर, सायं काल में पुनः गौ प्रेम-वश अपने सौभाग्यशील दर्शन देने उपस्तिथ होती हैं और हमारे अभाग्यशाली वन्धुं-वान्धंव जो भी दुग्ध प्राप्त हुआ उसे निकालकर, गाय से अपना सूक्ष्म भावनात्मक संबन्ध प्रदर्शित कर प्रायः इसी क्रम में कार्य करते रहते हैं व निकट भविष्य में कुपोषण की शिकार गौ माता दुग्ध की मात्रा में भारी गिरावट या दुग्ध का ना प्रकट होना देखकर हमारे विजेता वन्धुं-वान्धंव गाय को विदा कर देते हैं, कुछ निर्दयता से तो कुछ सामान्य शिष्टाचार दिखाकर!

जितने भी समय गौ माता शहरों की सडकों, इत्यादि स्थानों से विचरण कर निकलती है, तो क्या प्रत्येक हिंन्दु उन्हें माता या देवी जैसा सम्मान प्रदान करता हैं, उनकी सेवा में कितनी मात्रा में सुलभ भोजन का जलपान कराता हैं? जहाँ प्रदूषण शहरों की शोभा बढ़ाता है, प्रदूषण भी अनेको प्रकार का होता है, वैसे ही गौ माता की समस्याएँ भी अनेकों प्रकार से कुंण्ठित, संक्रमित व आप्रकृतिक रूप से गुण-तत्व धर्म में नकारात्मक प्रभाव दृश्टिगोचर करातीं आ रहीं हैं। एक तो किसी भी माध्यम द्धारा सकारात्मक क्रिया नहीं वहीं पर इतनी नकारात्मकता से परिपूर्ण प्रतिक्रियाएं, यही कुछ कारण हैं भारतीय गौ की दुग्ध की मात्रा व प्रजनन क्षमता में नकारात्मक जीवांन्तरण इस्लामिक आक्रमणों से ब्रिटिश हुकूमत व तथाकथित स्वतंन्त्रता धर्मनिर्पेक्ष सरकार से अब तक हमारे भारतीय समाज द्धारा गर्भित है!

सामान्य हिंन्दु वन्धुं-वान्धंव कर्मकांड की आध्यात्मिक क्रियाओं के लिए गौ को कभी-कभी पूरी, रोटी, चोकर इत्यादि खिला आते हैं, ठीक उसी प्रकार गौ-रक्षा ,गौ संरक्षण के आधार पर कितनी व्यापारिक राजनीतिक संस्थायें अनेकों स्वरुप लेकर गौवंश की सरकारी भूमि पर अपने व्यापारिक व मनोरंजनपूर्ण कृत्यकर्मो को गौ सेवा का प्रसाद मान कर अपने आराध्य देवी-देवता को धन्यबाद देते हैं। कुछ व्यक्तिगत अनुभव ऐसे हैं, जहाँ बीमार गौ माता को स्वयं एक प्रसिद्ध मंदिर के अधिपति ही डंण्डे मारकर भगा देते कि कहीं गाय को कुछ हो गया तो अन्तेष्टि क्रिया पर कहीं धन मंदिर का व्यर्थ ना हो जाए! तो कभी बीमार गौवंश के लिए मदद कहाँ से मांगे?

किस हिंन्दु वन्धुं-वान्धंव को संपर्क करें और हिंन्दु संगठनों से जुड़ी राजनीतिक पार्टी के नेता भी इस कार्य में कोई सहायता प्रदान नहीं करते! तो कभी चिकित्सक ढूढ़ने पर, कुछ दिनों में मिल भी गया तो वो कहता है-आवारा गाय है तो पहले बताते जब उससे कहा गया आप अपना शुल्क ले लें तो भी वही राग अलापता रहा आवारा, पालतु यह शब्द व यह सारे ही भाव किस प्रकार से किसी आराध्य ऊर्जा के लिए उपयोग हो सकते हैं? इससे तो बेहतर आध्यात्मिक धार्मिक भावना का ना होना वा मानवीय दया का होना लाभदायक होता! क्योंकि हमारे वन्धुं-वान्धंवो के धार्मिक दिनचर्या व अपने स्वयं गुणभावनुसार बनाये धार्मिक नियमों में दया भाव का होना घ्रणित अंकित है। जहाँ आज शहरी हिंन्दु जनसख्याँ गौ मूत्र, गोबर से बचने के लिए गौ वंश को यहाँ-वहां निर्दयता से प्रताड़ित कर उन्हें भटकते-भटकते कसाइयों को स्वयं ही बलिदानित कर देतें हैं ,वहीं कुछ स्थानों पर तो स्वयं कट्टरपंथी हिंदुत्व संगठनों से जुड़े कार्यकर्ता ही मृत्य गौवंश की चमड़ी व गौमांस में अपना भी प्रतिशत लाभार्थ करते हैं।

कितने प्रतिशत हिंन्दु जनता गौ वंश विषेशकर गौ माता से जुड़े पच्छिमी वैज्ञानिक व आध्यात्मिक तथ्यों को जानती समझती व उन्हें अपनाती हैं, जहाँ जर्मन, रशिअन, फ्रेंच व अमेरिकन वैज्ञानिको ने दशकों पूर्व ही भारतीय वैदिक सभ्यता में दैवीयतुल्य गौ माता पर अनेको भौतिक, वैज्ञानिक शोधों द्धारा अचंभित व अकल्पनीय विश्लेषणों को साक्ष्य् प्रमाणित व संपादित किया हैं। वैदिक आध्यात्मिक सूत्र अत्यंत सूक्ष्म होते हैं कि आप ग्रंथो को पढ़ तो सकते हो परंतु अध्ययन नहीं कर सकते, आप श्लोक विचार बातों को याद तो रख सकते हो पर उनका स्वाध्यात्मिक स्मरण नहीं कर सकते, आप जानकारियों से परिपूर्ण हो सकते हो पर ज्ञानपूर्वक आभाषित नहीं। तर्कना पच्छिमी भौतिक विज्ञान का आधार है परंतु भारतीय सनातन वैदिक सभ्यता अनुभव-वोध पर अतिसूक्ष्म तलहटी से प्रारंम्भ होती है जहाँ तक प्रायः मनुष्यों के जन्मांतर भी अंत प्राप्त नहीं करते।।

“सनातन धर्म जयते यथाः”

Tags:               

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh