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इस IPL (इंडियन पॉलिटिकल लीग) को कौन सुधारेगा ?

kuchhalagsa.blogspot.com
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सारे देश को दो-दो IPL, Indian Premier League और Indian Political League के तमाशों को एक साथ देखने का मौका मिला।मैदान और जंग में कोई एकरूपता या समानता ना होने के बावजूद दोनों में हर वह खासियत थी जो हम भारतियों को आकर्षित कर इनकी पल-पल की खबर जानने की उत्सुकता बनाए रखने का माद्दा रखती है। हाँ एक समानता जरूर है, दोनों जगह के “खिलाड़ी” बिकने के लिए सदा तैयार रहते हैं। जो ज्यादा बोली लगाता है इनकी स्वामिभक्ति उसी की हो जाती है, अगला मौका आने तक ! पर जहां प्रीमियम लीग अपनी कुछ खामियों के बावजूद प्रशंसनीय खेल व मैत्री भावना के साथ क्रिकेट में भारत के बर्चस्व को दर्शा गर्व करने का कुछ मौका प्रदान करती है वहीँ दूसरी लगातार पतनोन्मुख राजनीती पर से पर्दा हटा उसकी गलीजता, मौकापरस्ती, लालच, सत्ता-लोलुपता को बेनकाब कर हताशा से दो-चार करवाती है ! दोनों के अपने नियम-कायदे हैं जिनके तहत इनका निर्वाह होता है पर अब देश की राजनीती की जैसी हालत है।

 

उसमें अधिकतर खंडित जनादेश की परिस्थियाँ बनने लगी हैं और ऐसा होते ही इस लीग का सारा खेल बिना नियमों का हो जाता है। उस समय आरोप-प्रत्यारोप, चीर-हरण, उखड़ते दबे मुर्दे, अमर्यादित जुमलेबाजी, एक-दूसरे को नीचा दिखाने का ऐसा माहौल बन जाता है कि नैतिकता, भाषा, सज्जनता, गरिमा ये सब खुद ही चुप-चाप जा ताक पर बैठ जाते हैं। उस समय एक ही लक्ष्य होता है कैसे भी, किसी भी तरह विरोधी को धकिया कर सत्ता हासिल कर ली जाए। तब ना अपने आदर्श याद रहते हैं नाहीं अपनी विचार धाराएं। धुर विरोधी भी अपने मतदाताओं को छल, एक हो, कुर्सी पाने की होड़ में शामिल हो जाते हैं। खेल में शामिल दल किस तरह और किस हद तक मनमानी पर उतर आते हैं यह दर्शकों ने देखा ही है। इसका हल इसलिए नहीं है क्योंकि ऐसी अवस्था आने पर क्या किया जाना चाहिए इसकी हमारे संविधान में कोई मार्गदर्शिता नहीं है।

 

आजकल अधिकतर कौन, कैसे और किस तरह चुनाव लड़ कर विजयी होते हैं यह देश का बच्चा-बच्चा जानता है। इस तरह के लोगों का मूल उद्देश्य सत्ता के मार्फ़त सिर्फ धन और बल हासिल करना होता है। यदि खुदा-न-खास्ता जनादेश खंडित होता है तो इनकी और भी बन आती है। ये तथाकथित जन-सेवक अपनी नीलामी करवाने बाजार में खड़े हो जाते हैं। लाखों-करोड़ों की बोलियां लगनी शुरू हो जाती हैं। स्व-हित में ये इंसान से माल बन जाते हैं। ऐसे लोग सत्ता में आ कर क्या गुल खिलाएंगे ये कोई रहस्य नहीं रह गया है। आज हर राजनितिक दल इस बिमारी से परेशान है; तो क्या उनका फर्ज नहीं बनता कि ऐसी हालत से निबटने के लिए एक हो, सरकार गठन के नियम-कानूनों को प्राथमिकता देते हुए बदलने की पहल की जाए।

 

अब तो जब अपने पेट में वायु-प्रकोप होने पर विरोधी को दोषी ठहराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का द्वार कभी भी, किसी भी समय खटखटा दिया जाता है तो क्यों नहीं वहीँ से सुधार का कडा कानून पारित कर दिया जाए। जैसे स्कूल-कालेज की परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के अंक निर्धारित होते हैं वैसे ही यहां भी 51% को पत्थर की लकीर बना दिया जाए। इससे कम पर सरकार बनाने की किसी की कोई सुनवाई, किसी भी कीमत पर न हो यदि कोई दल चुनाव नतीजों के आने के बाद दूसरे दलों से गठबंधन का दावा करे तो उसे चुनाव पूर्व ऐसी सहमति का प्रमाण पेश करना अनिवार्य हो। सांसद संसद में अपने क्षेत्र के मतदाताओं का प्रतिनिधि होता है। उसने किसी दल के तहत या निर्दलीय के रूप में जनता से कुछ वादे कर किसी और के विरुद्ध चुनाव लड़ा होता है। चुनाव पश्चात् यदि वह दल-बदल करना चाहे तो उसे अपने दल से त्याग-पत्र दे फिर से जनादेश लेने के लिए जनता के बीच जाने की मजबूरी हो। ऐसे ही कुछ ठोस उपाय यदि न्यायालय सुझा कर लागू कर दे तो कुछ हद तक तो मौका-परस्ती, भ्रष्टाचार, धन-बल का उपयोग कम हो ही सकता है।

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