Menu
blogid : 25529 postid : 1388838

कभी-कभी कोई फिल्म आपके साथ घर तक चली आती है

kuchhalagsa.blogspot.com
kuchhalagsa.blogspot.com
  • 110 Posts
  • 6 Comments
फिल्मों का का खानदानी शौक तो सदा से ही रहा है। पहले तो अच्छी-बुरी, हिंदी-अंग्रेजी-बांग्ला सभी फ़िल्में देख ली जाती थीं। एकाधिक बार “मज़बूरी” में एक दिन में दो-दो फ़िल्में भी निपटानी पड़ जाती थीं। हर भाषा के हमारे अपने पसंदीदा कलाकार होते थे। धीरे-धीरे पसंदगी सिमटती गयी, फ़िल्में देखने के पहले चयनित होने लगीं, फिर हॉल-संस्कृति के खात्मे और मल्टी-प्लेक्स के युग में यह चयन और भी सख्त हो गया। याद रखने लायक, देखने की ललक पैदा करने वाली, चुनिंदा फ़िल्में बननी कम हो गयीं। पर कभी-कभी साल में दो-तीन तो ऐसी आ ही जाती हैं जिनका टी. वी. पर आने का इंतजार ना कर जा कर देखने की बनती है। पिछले हफ्ते शनिवार सपरिवार अमिताभ-ऋषि की “102 नॉट-आउट” देखने जाना हुआ, फिल्म ठीक-ठाक थी, पहले हाफ में कुछ सुस्त व उबाऊ होने के बावजूद अच्छी लगी। पर साथ ही यह भी सच है कि यदि ये दोनों कलाकार ना होते तो शायद ही चल पाती।

खैर फिल्म ख़त्म हुई, बाहर ना निकल परिसर में ही लौट आए। एक दिन पहले ही आलिया की “राजी” भी वहीँ लगी हुई थी, पुरानी लत के कीड़े ने जोर मारा ! प्रस्ताव पेश किया तो मना किसने करना था, सारे एक से बढ़ कर एक शौकीन; पर शर्त एक ही थी कि पहले पेट-पूजा का प्रसाद ग्रहण कर ही दोबारा हॉल में प्रवेश किया जाएगा। बात तर्क-सम्मत थी, सो सर्व-सम्मति से पारित हो गयी और सिनेमा देखने के इतिहास में पहली बार स्क्रीन के सामने पैर फैला कर बैठने की सुविधा वाली सीटों पर बैठ, गर्दन उठा, फिल्म के कलाकारों के बिल्कुल पास जा फिल्म देखी।

फिल्म शुरू होते ही सारी कठनाइयां भूल सी गयीं। हालांकि “राजी” कोई बहुत ही असाधारण या अनोखी फिल्म नहीं है पर साधारण भी नहीं हैं ! इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है आलिया भट्ट। इस लड़की ने इतनी कम उम्र और अपनी संक्षिप्त सी फ़िल्मी यात्रा में वह मुकाम हासिल कर लिया है जिसे पाने के लिए कई अभिनेत्रियों ने अपनी जिंदगी खपा कर भी सफलता नहीं पाई। आज आलिया ने हेमा, जीनत, श्रीदेवी जैसी ग्लैमर्स फिल्मों की अभिनेत्रियों के साथ-साथ शबाना, स्मिता जैसी गंभीर फिल्मों की अदाकाराओं को भी पीछे छोड़ वहीदा, नूतन व मधुबाला जैसी कलाकारों की श्रेणी हासिल कर ली है। “राजी” देख कर ही इस लड़की की “डेप्थ” का अंदाज

लगाया जा सकता है। इस कठिन रोल को उसने जिस सहजता के साथ निभाया है वो कबीले-तारीफ़ है। साथ ही इस फिल्म की निर्देशक मेघना भी बधाई की पात्र है जिसने फिल्म को इतनी तन्मयता से बनाया है जैसे कोई मूर्तिकार बुत तराशता है। हरेक कलाकार को संयमित और सहज रखते हुए उनकी कला का शत-प्रतिशत योगदान करवाया है। इसमें उसने कमाल कर दिया है। पर इसी कमाल ने फिल्म के तराजू को ज़रा सा पकिस्तान की तरफ भी झुका दिया है। कहीं-कहीं दर्शक की सहानुभूति पाक के साथ जा खड़ी होती है ! यह शायद पहली फिल्म है जिसमें कोई भी पाकिस्तानी किरदार खलनायक नहीं लगता। जो भी हो यह उस श्रेणी की फिल्म है जो ख़त्म होने पर आपके साथ घर तक चली आती है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh