कभी-कभी दिलो-दिमाग पर पड़ी किसी हल्की सी दस्तक से कोई ऐसी याद कपाट खोल सामने आ जाती है जो बरबस तन-बदन को तरंगित कर मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है। कल रात सोते समय पता नहीं कैसे-कैसे, क्या-क्या लिंक जुड़ते गए जो धीरे-धीरे मुझे सत्तर के दशक में खींच कर ले गए। अपना बचपन, उस से जुड़े लोग, उनका भोलापन, बड़े लोगों की दयालुता-दानिश्ताई सब जैसे सजीव सा होता चला गया। उसी समय के दो-तीन प्रसंग पेश हैं जो आपके चहरे पर भी मुस्कान बिखेर देंगे।
एस्प्लेनेड के खादी भवन पर लगी घडी |
हर की पौड़ी का टॉवर क्लॉक |
उन दिनों हाथ-घड़ियाँ आम नहीं हुआ करती थीं। समाज का ख़ास वर्ग ही उनका उपयोग किया करता था। आज
यह जान कर अजीब लगे पर निम्न आय और मजदूर वर्ग तो शायद सोचता भी नहीं था घडी लेने के बारे में। लोगों की सहूलियतों के लिए शहरों-कस्बों के बड़े चौराहे पर बड़ी-बड़ी घड़ियाँ मीनार पर या ऊँची इमारतों पर लगाई जाती थीं। अभी भी ऐसी घड़ियाँ छोटे-बड़े शहरों में देखी जा सकती हैं। इसके अलावा कामगारों की सहूलियत के लिए कल-कारखानों के साथ-साथ कई जगह रात के समय गजर, जिसे घंटा कहा जाता था, बजाने की परंपरा भी थी। यह एक लोहे का बड़ा सा, भारी आयताकार टुकड़ा होता था जो एक हुक से दोलायमान अवस्था में लटका रहता था इस पर सयानुसार एक लोहे के हथौड़े से चोट कर समय बताया जाता था, जैसे दो बजे, दो प्रहार कर, तीन बजे, तीन प्रहार कर। यह क्रम रात के ग्यारह बजे से शुरू हो सुबह के चार बजे तक हर घंटे, समय के अनुसार चलता था।
जेटी |
इसी तरह के होते थे गजर |
उधर चीफ-इग्ज़ेक्युटिव डागा जी अपने बंगले में जाग चुके थे। उन्होंने जब एक घंटे की आवाज सुनी तो चौंके कि अभी तीन बजे थे पांच मिनट बाद ही एक कैसे बज गया ? घडी देखी तो सुबह के चार बजे थे। उस समय तो उन्होंने किसी को नहीं बुलाया पर सुबह छह बजे आफिस पहुंचते ही जेटी पर के उन दरवानों को बुला भेजा। दोनों जने डरते-कांपते हाजिर हुए ! सारी बात बतला सर झुकाए खड़े रहे। आगे से ध्यान रखने की हिदायत और जाने की इजाजत पा दोनों भगवान को धन्यवाद देते हुए भाग खड़े हुए। थोड़ी ही देर में यह बात पूरी मिल में फ़ैल गयी और दोनों जने हफ़्तों मुंह बचाते लुकते-छिपते रहे, खासकर हम बच्चों से…….!
*कल फिर मिसिर जी की पेशी
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