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सच्चाई सामने आने में बहुत समय लेने लगी है!

kuchhalagsa.blogspot.com
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एक लम्बे अर्से बाद देश ने किसी एक दल की स्थाई सरकार का जायजा लिया है। नहीं तो जबसे जातिबल, धर्मबल, अर्थबल या बाहुबल से सत्ता हथियाई जाने लगी है, तबसे केंद्र में गठबंधन का ही बोलबाला रहने लगा था । किसी एक दल की सरकार बन पाना असंभव सा होता चला गया था। गठबंधन से बनी सरकार को हर वक्त अपने घटकों से ख़तरा ही बना रहता था। ऐसी सरकारों की अपनी मजबूरियां होती थीं, जिनके चलते वे कभी चैन की सांस नहीं ले पाती थीं। उसके घटक का हर एक दल और उसका अगुआ, चाहे किसी भी कोण से किसी भी काबिल न हो पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्ज़ा करना उसकी जिंदगी का मुख्य ध्येय होता था। इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद हर नीति अपनाई जाती थी। छल-कपट से कोई परहेज नहीं होता था।
आज भी कुछ क्षत्रप अपने आप को देश का राजा समझने का गुमान जिंदगी भर पाले रखते हैं। ऐसे में “मेरी-गो-राउंड” जैसा खेल चलता रहता है। कुछेक अंतराल से तरह-तरह के कुनबे जुड़ते हैं, जिनका देश या जनता के हित से कोई सरोकार नहीं होता। उन्हें सिर्फ अपना और अपने परिवार का ध्यान होता है। वे जोड़-तोड़ लगाकर वहां पहुंचते हैं, मतलब पूरा करते हैं और खिसक लेते हैं या लाइन में लगे हुए लोगों द्वारा खिसका दिए जाते हैं। वैसे आने और जाने वालों, सभी को पता रहता है इस क्षणिक-प्रभुता का, इसीलिए अपने उसी संक्षिप्त या किसी तरह पूरे कार्यकाल में जितना हो सके लाभ कमाने की जुगत बैठा अपना उल्लू सीधा कर निकल लेते हैं, अगली बारी के इंतजार में।
सत्ताविहीन होते ही हर दल और उसका आका दोबारा सत्ता को गले लगाने के लिए सदा आतुर रहता है, जिसके तहत वह अपने विरोधी की ऐसी-ऐसी बातें, खबरें, इतिहास, जनता के सामने लाता है, जिसका पता उसके विरोधी को शायद खुद भी नहीं होता। इस तरह की हरकतों में सारे दल एक समान हैं। आज की राजनीती गर्त में जा गिरी है। अधोगति की पराकाष्ठा है। कोई मर्यादा नहीं बची है। गाली-गलौच, अपशब्द, मानहानि किसी बात से किसी को परहेज नहीं रहता। इसमें ना ही सामने वाले की उम्र देखी जाती है और ना उसका कद या पद। उस समय कोई भी अपने गिरेबां में नहीं झांकता, जबकि उसे पता होता है, अपनी भी असलियत का। फिर भी जनता को बेवकूफ समझ एक दूसरे के बारे में अनर्गल प्रलाप किया जाता रहता है।
इस बार जब से केंद्र में एक मजबूत सरकार बहुमत से आई है, तब से ही देश के क्षेत्रीय दलों में अपने अस्तित्व को लेकर खलबली मची हुई है। करीब-करीब सारे दल हाशिए पर चले गए हैं। हारे-थके, बिखरे दलों के मंजे-घुटे नेताओं द्वारा एक जुट होकर एक सार्थक विपक्ष गठित करने का प्रयास, पहले तो देश के निष्पक्ष अवाम को देश हित के लिए एक सार्थक कदम लगता रहा।  भले ही इन स्वार्थी, सत्तालोलुप नेताओं ने उनके लिए कौड़ी का काम भी न किया हो। फिर भी धर्म-जाति के नाम पर लोग उन्हें अपना मसीहा मानते रहे। उनके अपने आप को बचाने के लिए बनाए “महागठबंधनों” को भी मूर्तरूप देने में मदद करते रहे। लेकिन धीरे-धीरे, जैसे-जैसे इन मतलबपरस्त, परिवारवादी, लोभी, कपटी नेताओं की करतूतें सामने आने लगीं, वैसे-वैसे इनके सत्ताधारी दल का विरोध कर गठबंधन की सरकार बनाने का मतलब भी जन-साधारण की समझ में आने लगा है।
लोग समझ गए हैं कि इनके सांप्रदायिकता, धर्म-निरपेक्षता को लेकर हो-हल्ला मचाने के प्रयास देश को नहीं खुद को बचाने की कवायद है। गठबंधन इनका रक्षा-कवच है।  राजा बन सत्ता की गाय को दुह-दुहकर ये करोड़ों, अरबों की संपदा इकठ्ठा कर धन-कुबेर बन गए हैं। उस सच्चाई को छिपाने के लिए इन्हें किसी भी तरह सत्ता के अभेद्य किले की जरूरत होती है, जो इनके विरुद्ध होने वाली किसी भी कार्रवाई से इन्हें महफूज रख सके। उसके लिए ऐसे लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं। इनकी तिकड़मों के राजदार,  इनके सहायक, इनके सलाहकार हर वह संभव कोशिश करते हैं, जिससे उनका आका सलाखों के पीछे जाने से बच जाए। इसी से सच्चाई सामने आने में काफी वक्त लग जाता है। पर समय एक जैसा तो रहता नहीं, ना ही वह किसी को बख्‍शता है, उसकी लाठी में आवाज भी नहीं होती।
पर वह नेता ही क्या, जो हार मान ले। अभी भी अपने विरुद्ध होने वाली कार्रवाई को अपने विरुद्ध षडयंत्र का नाम देकर ऐसे लोग भोली-भली ग्रामीण जनता को बरगलाने से पीछे नहीं हट रहे। अभी भी अपनी लच्छेदार भाषा में भाषणबाजी कर अपने आप को पाक-साफ़ साबित करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा अंतिम लड़ाई जीतने की कोशिश में लगे हुए हैं। खैर देर-सबेर सच्चाई तो सामने आ ही जाएगी। पर क्या इनके किए की सजा इन्हें मिल पाएगी ? क्या साधारण जनता इन्हें सर से उतार कर इनको इनकी औकात बता पाएगी ? क्या देश घुनों से अपने आप को बचा पाएगा ?  इन सारे यक्ष प्रश्नों का उत्तर भी समय ही देगा।

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