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मेरी ब्लॉग यात्रा

kuchhalagsa.blogspot.com
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‘कुछ अलग सा’
कभी-कभार, कुछ-कुछ लिखते रहने के शौक को ब्लॉग-लेखन में बदलने का सारा श्रेय एक मासिक पत्रिका को जाता है। अपने जन्म से ही यह हमारे घर की सदस्य रही है। वर्षों से नियमित रूप से हमारे यहां आती थी। बात 2007 के अक्टूबर अंक की है। उसमें बालेन्दु दाधीच जी का ब्‍लॉगिंग पर एक विस्तृत लेख ‘ब्लॉग हो तो बात बने’ छपा था। लेख की प्रेरणा, बालेन्दु जी के मार्गदर्शन और छोटे बेटे अभय की सहायता से मैंने भी अपना एक ब्लॉग बना ही लिया, जिसे नाम दिया ‘कुछ अलग सा’। जो पूरी तरह स्वांत: सुखाय था।

नई-नई विधा थी, शौक भी था, तो कुछ न कुछ रोज ही उस पर दर्ज हो जाता था। अचानक एक दिन ‘उड़न तश्‍तरी’ के नाम से पहली बार एक टिप्‍पणी मिली। एक-दो दिन बाद ही राज भाटिया जी ने अपना कमेंट भेजा। तब ब्लॉग की विशालता, उसकी ताकत और पहुंच का असली अंदाजा हुआ। समीर जी और भाटिया जी ने एक नए ब्लॉग को पढ़ा और अपनी राय भेजी, मेरा हौसला बढ़ा, झिझक कम हुई। इन दोनों सज्जनों का हार्दिक धन्यवाद। इसके बाद रविंद्र प्रभात जी के प्रयास से भूटान यात्रा का सुयोग बना, जिसके दौरान कई नए मित्र बने।

धीरे-धीरे कारवां आगे बढ़ता रहा। समय के साथ-साथ विद्वानों, गुणीजनों का साथ मिला। उत्कृष्ट रचनाओं को पढ़ने का सुयोग प्राप्त हुआ। लेखन की हर विधा से साक्षात्कार हुआ। अद्भुत फोटोग्राफी, दुर्गम स्थानों की यात्रा तफ़सील, दूर-दराज के क्षेत्रों की जानकारी, जटिल विषयों का समाधान, हल्के-फुल्के मनोरंजन, सामयिक विषयों पर वार्तालाप के साथ-साथ राजनितिक कटुता, विचार वैमनस्य की कटुता का भी स्वाद चखा। पर यह सच्चाई भी सामने आई कि ज्यादातर लोग बहस से बचना चाहते हैं। एक दूसरे की बुराई कम ही करते हैं, लेख इत्यादि पर आलोचना नहीं के बराबर होती है, तारीफ़ की भरमार है। जो कहीं न कहीं खटकता है।

अपनी दही को कोई खट्टा नहीं कहता। उसी तरह हर इंसान को अपनी बुद्धि, अपनी सोच, अपने विचार, अपनी कृति, अपना लेखन, सर्वोपरि लगता है, लेकिन उसे असलियत जरूर बतानी चाहिए। जिससे वह अपनी कमियों, गलतियों को दूर कर सके। कृपया इसे आत्मप्रशंसा ना समझें। पर आज जैसे ‘कुछ अलग सा’ पर रोज सैकड़ों आवक दर्ज हो रही है, तो मन में इच्छा बहुत होती है कि सबसे मिला जाए। कौन हैं, उनसे बात-चीत की जाए, पर ऐसा हो नहीं पाता। खुद आगे आकर बात करने में एक झिझक सी सदा बनी रहती आई है। पता नहीं प्रभु ने स्वभाव ही ऐसा बना कर भेजा है। इसी कारण अभी तक छह-सात लोगों के अलावा किसी से मिलने का सुयोग नहीं हो पाया है। फिर भी सारे इष्ट-मित्र, साथी अपने लगते हैं। आप सभी ‘अनदेखे अपनों’ का मैं सदा आभारी हूं। आप का प्यार, स्नेह, अपनत्व, मार्गदर्शन सदा मिलता रहे यही कामना है।

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