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ललिता का बेटा

kuchhalagsa.blogspot.com
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काफी पुरानी बात है, उस समय कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली स्कूली दुकानें नहीं खुली थीं। हमारा विद्यालय भी एक संस्था द्वारा संचालित था, जहां योग्यता के अनुसार दाखिला किया जाता था। यहां की सबसे अच्छी बात थी कि स्कूल में समाज के हर दर्जे के परिवार के बच्चे बिना किसी भेदभाव के शिक्षा पाते थे। कार से आने वाले बच्चे पर भी उतना ही ध्यान दिया जाता था, जितना मेहनत-मजदूरी करने वाले घर से आने वाले बच्चे पर। किसी भी तरह का अतिरिक्त आर्थिक भार किसी पर नहीं डाला जाता था।

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फीस से ही सारे खर्चे पूरे करने की कोशिश की जाती थी। इसीलिए स्टाफ की तनख्वाह कुछ कम ही थी पर माहौल का अपनापन और शांति यहां बने रहने के लिए काफी थी। हालांकि करीब तीस साल की लम्बी अवधि में विभिन्न जगहों से कई नियुक्ति प्रस्ताव आए पर इस अपने परिवार जैसे माहौल को छोड़कर जाने की कभी भी इच्छा नहीं हुई। स्कूल में कार्य करने के दौरान तरह-तरह के अनुभवों और लोगों से दो-चार होने का मौका मिलता रहता था।  इसीलिए इतना लंबा समय कब गुजर गया पता ही नहीं चला।

पर इतने लंबे कार्यकाल में सैकड़ों बच्चों को अपने सामने बड़े होते और जिंदगी में सफल होते देख खुशी और तसल्ली जरूर मिलती है। ऐसा कई बार हो चुका है कि किसी यात्रा के दौरान या बिल्‍कुल अनजानी जगह पर अचानक कोई युवक आकर मेरे पैर छूता है और अपनी पत्नी को मेरे बारे में बतलाता है, तो आंखों में ख़ुशी के आंसू आए बिना नहीं रहते। गर्व भी होता है कि मेरे पढ़ाए हुए बच्चे आज देश-विदेश में सफलता पूर्वक अपना जीवन यापन कर रहे हैं। ख़ासकर उन बच्चों की सफलता को देखकर ख़ुशी चौगुनी हो जाती है, जिन्होंने गरीबी में जन्म ले, अभावग्रस्त होते हुए भी अपने बल-बूते पर अपने जीवन को सफल बनाया।

ऐसा ही एक छात्र था, राजेन्द्र। उसकी मां ललिता हमारे स्कूल में ही आया का काम करती थी। एक दिन वह अपने चार-पांच साल के बच्चे का पहली कक्षा में दाखिला करवा उसे मेरे पास ले कर आई और एक तरह से उसे मुझे सौंप दिया। वक्त गुजरता गया। मेरे सामने वह बच्चा, बालक और फिर युवा हो 12वीं पास कर महाविद्यालय में दाखिल हो गया। इसी बीच ललिता को तपेदिक की बीमारी ने घेर लिया। पर उसने लाख मुसीबतों के बाद भी राजेन्द्र की पढ़ाई में रुकावट नहीं आने दी। उसकी मेहनत रंग लाई। राजेन्द्र द्वितीय श्रेणी में स्‍नातक की परीक्षा पास कर एक जगह काम भी करने लग गया। वह लड़का कुछ कहता नहीं था। मन की बात जाहिर नहीं होने देता था, पर उसकी सदा यही इच्छा रहती थी कि जिस तरह भी हो वह अपने मां-बाप को सदा खुश रख सके।

अच्छे चरित्र के उस लड़के ने अपने अभिभावकों की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। उससे जितना बन पड़ता था, अपने मां-बाप को हर सुख-सुविधा देने की कोशिश करता रहता था। मां के लाख कहने पर भी अपना परिवार बनाने को वह टालता रहता था। उसका एक ही ध्येय था, मां-बाप की ख़ुशी। ऐसा पुत्र पाकर वे दोनों भी धन्य हो गए थे।  इस तरह इस परिवार ने कुछ समय ही ज़रा सा सुख देखा था कि एक दिन ललिता के पति का तपेदिक से देहांत हो गया। इस विपदा के बाद तो बेटा, मां के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गया। पर भगवान को कुछ और ही मंजूर था। ललिता अपने पति का बिछोह और अपनी बिमारी का बोझ ज्यादा दिन नहीं झेल पाई और पति की मौत के साल भर के भीतर ही वह भी उसके पास चली गयी। राजेन्द्र बिल्कुल टूट सा गया। मेरे पास अक्सर आ बैठा रहता था। जितना भी और जैसे भी हो सकता था, मैं उसे समझाने और उसका दुःख दूर करने की चेष्टा करती थी।  समय और हम सब के समझाने पर धीरे-धीरे वह नॉर्मल हुआ। काम में मन लगाने लगा। स‍म्मिलित प्रयास से उसकी शादी भी करवा दी गयी।

आज राजेन्द्र अपने परिवार के साथ रह रहा है। पर जब कभी भी मुझसे मिलता है, तो उसकी विनम्रता, विनयशीलता मुझे अंदर तक छू जाती है और मेरे सामने वही पांच साल का पहली कक्षा का मासूम सा बच्चा आ खड़ा होता है। ऊपर से उसके मां-बाप उसे देखते होंगे, तो उनकी आत्मा भी उसे ढेरों आशीषों से नवाजती होगी।

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