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हम इंसान अपनी उपलब्धियों पर ही इतना इतराते और मग्न रहते हैं कि हम अपने आस-पास के जीव-जंतुओं, कीड़े-मकौड़े-कीटाणु-जीवाणुओं की उपलब्धियों पर ध्यान ही नहीं देते। हालांकि हमारी ज्यादती से सैकड़ों प्रजातियां इस दुनिया से विदा ले चुकी हैं और अनेकों का अस्तित्व खतरे में हैं। फिर भी जहां मानव दसियों बीमारियों से ग्रसित हो दम तोड़ देता है, वहीं जीव-जंतु अपने को परिस्थियों के अनुसार ढाल लेते हैं।
कभी सोचा है कि तिलचिट्टा (Cockroach) हजारों हजार साल से, एक से एक विकट परिस्थियों के बावजूद कैसे बचा हुआ है। कैसे कछुआ दशकों तक जीवित रह जाता है। कैसे हीमांक के नीचे या जानलेवा तपिश में भी प्राणी जिंदगी को गले लगाए रखते हैं, बिना किसी अप्राकृतिक साधन के। कैसे प्राकृतिक आपदाओं में मनुष्यों की मौत ज्यादा होती है, बनिस्पत दूसरे प्राणियों के। कैसे छोटे-छोटे तुच्छ कीटाणु-जीवाणु कीटनाशकों के प्रति प्रतिरक्षित हो जाते हैं। है न आश्चर्य की बात!
मच्छर को ही लें! एक-डेढ़ मिलीग्राम के इस दंतविहीन कीड़े ने वर्षों से हमारे नाक में दम कर रखा है। करोड़ों-अरबों रुपये इसको नष्ट करने के उपायों पर खर्च करने के बावजूद इसकी आबादी कम नहीं हो पा रही। तरह-तरह की सावधानियां, अलग-अलग तरह के उपाय आजमाने के बावजूद साल में करीब चार लाख के ऊपर मौतें इसके कारण हो जाती हैं।
इतने लोग तो मानव ने आपस में लड़े गए युद्धों में भी नहीं खोए। मच्छर तथा मलेरिया पर वर्षों से इतना लिखा-पढ़ा गया है कि एक अच्छा खासा महाकाव्य बन सकता है। 1953 में इस रोग की रोकथाम के उपायों की शुरुआत की गयी, जिसे 1958 में एक राष्ट्रीय कार्यक्रम का रूप दे दिया गया। पर नतीजा शून्य बटे सन्नाटा ही रहा। सरकारें थकती नहीं नियंत्रण की बात करने में और उधर मच्छर भी डटे हैं रोगियों की संख्या बढ़ाने में।
मच्छर तथा मच्छरी दोनों फूल-पत्ती इत्यादि का रस पीकर ही जीते हैं, पर मादा को प्रोटीन की आवश्यकता होती है, जिसे वह मानव व दूसरे जीवों के रक्त से पूरा करती है। वैसे एक कहावत है “नारी ना सोहे नारी के रूपा” मच्छरी इस बात की हिमायतिन है। वह अपनी सम-लिगिंयों से ख़ास बैर रखती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार महिलाओं के पसीने में एक विशेष गंध होती है। वही मच्छरों को अपनी ओर आकर्षित करती है और इसके साथ ही लाल रंग या रोशनी भी इन्हें बहुत लुभाती है। पर इधर अपने भार से तीन गुना ज्यादा रक्त पी, कुछ समय के लिए अजगर के समान पड़ जाने वाले इस कीट में कुछ बदलाव सा नजर आने लगा है। खासकर दिल्ली में।
तटीय क्षेत्रों में शायद यह “वैज्ञानिक बदलाव” अभी नहीं पहुंचा है। अब लग रहा है कि यह पहले की तरह ज्यादा गुंजार नहीं करता। इसका आकार भी कुछ छोटा हो गया है। उड़ने की शैली भी कुछ बदलकर सुरक्षात्मक हो गयी है। एक बार में रक्त रूपी आहार की खुराक भी कम लेने लगा है।
इन सब परिवर्तनों का फायदा इस प्रजाति को मिलने भी लगा है। पहले गले तक रक्त पीकर, उड़ने से लाचार हो, यह आपके आस-पास ही पड़ा रहता था, चाहे बिस्तर पर या फिर तकिए पर या फिर पास की दिवार पर और देखते-देखते हाथ के एक ही प्रहार से वहीं चिपककर रह जाता था। पर अब बदलाव के कारण यह जरूरत के अनुसार भोग लगा यह-जा! वह-जा! होने लगा है।
पहले “फ्लिट” की एक ही बौछार से इसके सैकड़ों साथी भू-लुंठित हो जाया करते थे। वहीं, अब इस पर किसी भी धूम्र, द्रव्य या क्रीम का उतना प्रभाव नहीं पड़ता। कोई माने या ना माने पर जिस कीट को इतनी समझ है कि अपने डंक के साथ एक ऐसा रसायन अगले के शरीर में छोड़ता है, जिससे रक्त अपने जमने की विशेषता कुछ समय के लिए खो बैठता है और उतनी देर में यह खून चूस, किटाणु छोड़ हवा हो जाता है, तो क्या, उसने समय के साथ-साथ अपनी सुरक्षा के बारे में शोध नहीं किया होगा।
जितना पैसा दुनिया भर की सरकारें इस कीट से छुटकारा पाने पर खर्च करती हैं, वह यदि बच जाए तो दुनिया में कोई इंसान भूखा-नंगा नहीं रह जाएगा। इससे बचने का उपाय यही है कि खुद जागरूक रहकर अपनी सुरक्षा आप ही की जाए। क्योंकि ये महाशय “देखन में छोटे हैं पर घाव करें गंभीर”।
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