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भाषा में मुहावरों का तड़का

kuchhalagsa.blogspot.com
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रुचिकर बना देता है। उसमें एक गहराई, एक अलग प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा, जिसने कभी इनका प्रयोग किया-देखा-सुना ना हो !


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इसका प्रयोग कैसे और कब शुरू हुआ, इसकी जानकारी मिलना बहुत मुश्किल है, पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य ने शारीरिक चेष्टाओं, अस्पष्ट ध्वनियों और बोलचाल की किसी शैली का अनुकरण या उसके आधार पर उसके सामान्य अर्थ से भिन्न कोई विशेष या विशिष्ट अर्थ देने वाले वाक्य, वाक्यांश या शब्द-समूह को मुहावरे का नाम दिया होगा। ऐसे वाक्य जन-साधारण के अनुभवों, अनुभूतियों, तजुर्बों से अस्तित्व में आते रहे होंगे, जिनमें व्यंग का पुट भी मिला होता था। इन्हें लोकोक्ति के नाम से भी जाना जाता है। इनके बिना तो भाषा की कल्पना भी मुश्किल लगती है।



किसी भी भाषा में मुहावरों का प्रयोग भाषा को सुंदर, प्रभावशाली, संक्षिप्त तथा सरल बनाने के लिए किया जाता है। हिंदी में तो मुहावरों की भरमार है। इसमें मनुष्य के सर से लेकर पैर तक हर अंग के ऊपर एकाधिक मुहावरे बने हुए हैं। इसके अलावा खाने-पीने, आने-जाने, उठने-बैठने, सोने-जागने, रिश्ते-नाते, तीज-त्योहारों, हंसी-ख़ुशी, दुःख-तकलीफ, जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों, कथा-कहानियों, स्पष्ट-अस्पष्ट ध्वनियों, शारीरिक-प्राकृतिक या मनोवैज्ञानिक चेष्टाओं तक पर मुहावरे गढ़े गए हैं। और तो और हमने ऋषि-मुनियों-देवों तक को इनमें समाहित कर लिया है। पर इसके साथ ही एक बात ध्यान देने की यह भी है कि मुहावरे किसी-न-किसी तरह के अनुभव पर आधारित होते हैं। इसलिए उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन या उलटफेर नहीं किया जाता है। जैसे गधे को बाप बनाना या अपना उल्लू सीधा करना, इनमें गधे की जगह बैल या उल्लू की जगह कौवा कर देने से उनका अनुभव-तत्व नष्ट हो जाता है और वह बात नहीं रह जाती।



इनकी कुछ विशेषताएं भी हैं, जैसे- ये वाक्यांश होते हैं। मुहावरे का प्रयोग वाक्य के प्रसंग में ही होता है, अलग नहीं। मुहावरा अपना असली रूप कभी नहीं बदलता कार्टून चरित्रों की तरह ये सदैव एक-से रहते हैं। अर्थात उसे पर्यायवाची शब्दों में अनुदित नहीं किया जा सकता। इनका प्रयोग करते समय इनका शाब्दिक अर्थ न लेकर विशेष अर्थ लिया जाता है। इनके विशेष अर्थ भी कभी नहीं बदलते। ये लिंग, वचन और क्रिया के अनुसार वाक्यों में प्रयुक्त होते हैं। हाँ समय, समाज और देश की तरह नए-नए मुहावरे भी बनते रहते हैं। आज के मशीनी युग के मुहावरों और पुराने समय के मुहावरों तथा उनके प्रयोग में भी अंतर साफ़ दिखाई पड़ता है।



उदाहरण के तौर पर आज कुछ मुहावरों को यहां आमंत्रित करते हैं, जो खान-पान संबंधित चीजों से अटे पड़े हैं। पता नहीं विशेषज्ञों से कोई पदार्थ छूटा भी है कि नहीं। देखिए ना, कहीं “खिचड़ी अलग पक रही है” तो “कहीं अकेला चना भाड़ फोड़ने की बेकार कोशिश में लगा हुआ है। कहीं लोहे के चने चबवा दिए जाते हैं। फलों की बात करें तो यहां “आम के आम गुठली के भी दाम” मिलते हैं। कहीं “खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदल लेता है” तो “किसी के अंगूर ही खट्टे होते हैं।” किसी की “दाल नहीं गलती” तो “कहीं दाल में कुछ काला हो जाता है। कहीं कोई “घर बैठा रोटियां तोड़ता है,” तो “किसी की दांत काटी रोटी होती है” तो “किसी का आटा ही गीला हो जाता है।” कोई “मुंह में दही जमाए बैठ जाता है” तो “कोई अपने दही को खट्टा भी नहीं कहता।” सफलता के लिए किसी को “पापड़ बेलने पड़ जाते हैं” तो किसी का “हाल बेहाल हो जाता है” ऐसे में “ये मुंह और मसूर की दाल सुनना” पड़ता है।



कुछ लोग “गुड़ खाते हैं पर गुलगुले से परहेज कर” “गुड़ का गोबर कर देते हैं।’ कहीं कोई “ऊँट के मुंह में जीरा” देख “राई का पहाड़” और “तिल का ताड़ बनाकर”, “जले पर नमक छिड़कने” से भी बाज नहीं आता है। किसी के “दांत दूध के होते हैं” तो कुछ “दूध से नहाए होते हैं।” वहीं कुछ लोग “दूध का दूध पानी का पानी” कर “छठी का दूध याद दिला” कर किसी को “नानी की याद दिलवा देते हैं।”



हमारे यहां मिठाइयों से भी तरह-तरह की अजीबोगरीब उपमाएं रच दी गयी हैं। जैसे किसी टेढ़े व्यक्ति को “जलेबी की तरह सीधा” बताकर उसकी असलियत बताई जाती है, तो किसी मुश्किल काम को “टेढ़ी खीर” कहा जाता है। किसी के अच्छे वचनों के लिए उसके “मुंह में घी शक्कर” भर दी जाती है, तो किसी की सफलता पर उसके “दोनों हाथों में लड्डू।” थमा दिए जाते हैं। किसी की “पांचों उंगलियां घी में होती हैं” तो किसी की “खिचड़ी में ही घी गिरता है।” इसी कारण हम “खाते-पीते घर के लगते हैं।” औरों की तो क्या कहें, हमारे यहां तो “अंधे भी रेवड़ियां बांट” कर “दाल-भात में मूसरचंद बन जाते हैं।” इन मुहावरों की दुनिया तो इतनी विशाल है जैसे “सुरसा का मुंह” कि इन पर “पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है।” यह भी कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि “मुहावरे अनंत मुहावरा कथा अनंता”।

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