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कोणार्क के बाद दूसरा सबसे बड़ा सूर्य मंदिर है कटारमल!

kuchhalagsa.blogspot.com
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katarmal


वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, आज यह एक सर्वमान्य सत्य है। पुराणों में सूर्य को परमात्मा स्वरूप माना गया है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। पहले सूर्योपासना मंत्रों से होती थी, बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ, तो यत्र-तत्र सूर्य मन्दिरों का निर्माण भी हुआ। जिनमें ओडिसा का कोणार्क मंदिर विश्व-प्रसिद्ध है। पर यह बहुत कम लोगों को मालूम है कि उसके बाद उत्तराखंड के अल्मोड़ा शहर से करीब 16-17 कि.मी दूर कटारमल सूर्य मंदिर सूर्य भगवान को समिर्पत देश का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है।


यह  प्राचीन पूर्वाभिमुख मंदिर सूर्य भगवान वर्धादित्य या बड़ादित्य को समर्पित है। मुख्य मंदिर का परिसर करीब 800 साल पुराना है। हालांकि यहां मंदिर की जानकारी देता शिलालेख लगा हुआ है, पर उसकी लिखावट भी अब पढ़ी नहीं जाती है। यह प्राचीन तीर्थस्थल आज एक खंडहर में तब्दील हो चुका है। इसके बावजूद यह अल्मोड़ा का एक प्रमुख पर्यटन स्थल है। मंदिर अपने आप में वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है। समुद्र तल से 2116 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी के राजा कटारमल्ल ने 9वीं शताब्दी में करवाया था। इसमें कमलासीन सूर्य देव की मूर्ति करीब एक मीटर ऊँची है। उनके सिर पर मुकुट तथा पीछे प्रभामंडल है। यह शायद अकेला सूर्य मंदिर है जहां सूर्य भगवान की पूजा आज भी होती है।


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पहाड़ में स्थित यह देश का अकेला सूर्य मंदिर है जो कुमांऊॅं के विशालतम ऊँचे मन्दिरों में से एक  है तथा उत्तर भारत में विलक्षण स्थापत्य एवम् शिल्प कला का बेजोड़ उदाहरण है। मंदिर की दीवारों और इनके खम्भों पर खूबसूरत नक्काशी की गई है। पर वर्षों पहले हुई मूर्ति चोरी के कारण मंदिर के नक्काशीयुक्त दरवाजे और चौखट को दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में रख दिया गया है और छोटे मंदिरों की मूर्तियों को भी सुरक्षित रखने के लिए हटा दिया गया है। आजकल यह भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के अंतर्गत संरक्षित है।


कटारमल अल्मोड़ा जिले का एक छोटा सा गांव है। जहाँ पहुँचने के लिए अल्मोड़ा से रानीखेत सड़क मार्ग से जाना होता है। अल्मोड़ा से तकरीबन 12 किमी दूर कोसी गांव पड़ता है, जहां से कटारमल के लिए रास्ता कटता है। वहाँ से करीब दो किलोमीटर तक गाड़ी से जाने के बाद तक़रीबन एक किमी की चढ़ाई है। यह कच्चा-पक्का, कहीं-कहीं पगडंडी जैसा रास्ता है, जो ज्यादातर बदहाल है। अब सुनने में आया है कि इसे बेहतर बनाने की ओर ध्यान दिया जा रहा है। प्रमाण स्वरूप एक-दो जगह काम होते दिखा भी।


ऊपर एक बहुत बड़े चबूतरे पर मुख्य मंदिर के साथ-साथ 45 विभिन्न छोटे मंदिर भी बने हुए हैं। जिनमें शिव-पार्वती, गणेश, विष्णु-लक्ष्मी इत्यादि देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हुआ करती थीं, जिन्हें अब सुरक्षा की दृष्टि से हटा दिया गया है। पहले मंदिर का मुख्य-द्वार उत्तर दिशा की ओर से था, जिसे बंदकर अब पूर्व की तरफ कर दिया गया है। जबसे पुरातत्व विभाग ने इसकी देख-रेख करनी शुरू की है, तब से परिसर काफी साफ़-सुथरा और व्यवस्थित हो गया है। इतनी ऊंचाई से पहाड़ों का विहंगम दृश्य मन मोह लेता है। पर ऐसी महत्वपूर्ण जगहों पर जाकर भी फोटो खींचने की मनाही के कारण उनकी यादें न संजो पाना दुखद रहता है।

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