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सपरिवार एक साथ बैठ ऐसी फिल्म देख पाएंगे कि नहीं ! उन्हें मतलब होता है राष्ट्रीय अवकाश या फिर सप्ताहंत के तीन दिनों की कमाई से। इसके लिए उनकी आपसी सर-फोड़ी की ख़बरें आजकल आम होती हैं। कुछ जान-बूझ कर ऐसा विषय चुनते हैं जिस पर सौ प्रतिशत हंगामा होना तय हो। इसके लिए वे तरह-तरह के विवाद पहले से ही खड़े करने लगते हैं, जिसके लिए आजकल विशेषज्ञ भी उपलब्ध हैं, जिनका काम ही होता है लंगड़ी-लूली फिल्म में विवाद की बैसाखी लगाने का। कोई इतिहास में टंगड़ी फंसाता है, तो कोई भाषा का क्रिया-कर्म करने पर उतारू हो जाता है, कोई आस्था-मान्यता से खिलवाड़ करने लगता है तो कोई जनमत की भावनाओं को दांव पर लगा देता है। कोई किसी नेता की छवि को धूमिल करने की बेजा कोशिश करता है तो कोई किसी के चरित्र को लांछित करने का कुप्रयास। आज फ़िल्में सिनेमा हॉल में नहीं बाहर सड़कों पर ही मनोरंजन करने का साधन बन गयी हैं। पर जब लोग उन्हें नापसंद कर देते हैं, नकार देते हैं, तो ऐसे बद-दिमाग लोग अपनी गलती ना मान दर्शकों के ही नासमझ होने का दावा करने लगते हैं।
को इस विधा के किसी भी पहलू का पूरा ज्ञान भी नहीं होता। तिकड़म से इकठ्ठा किया गया धन, किसी बड़े स्टार की कुछ डेट का इंतजाम कर फिल्म बनानी शुरू कर दी जाती है। अधिकाँश वर्षों पहले की दो-चार फिल्मों का घालमेल या उनका “रि-मंचन” या फिर विदेशी चल-चित्रों का हिंदी रूपांतर होता है। यदि कहीं बिल्ली के भाग छीका टूट जाता है तो मीडिया में जबरदस्त प्रचार कर वह अपने आप को क्रांतिकारी फिल्म-मेकर के रूप में प्रचारित करवा आगे और ब्लंडर करने को तैयार हो जाता है।
पर पूरा भरोसा होता था, इसीलिए उनमें से किसी को किसी “क्लैश” का डर नहीं होता था। दस-बीस रुपए की कीमतों वाली 800-900 सीटों वाले एक हॉल में पच्चीस-पचास हफ्ते चलने के बाद सिल्वर या गोल्डन जुबली कहलाती थीं, और आज भी याद की जाती हैं। ऐसा नहीं था कि उस समय स्तर-हीन फ़िल्में नहीं बनती थीं, पर उनकी संख्या कम ही होती थी।
ऐसा नहीं है कि सब कुछ निराशा जनक हो गया हो; आज भी इस विधा के निष्णात लोग कटिबद्ध हैं इस माध्यम को नई-नई ऊंचाईंयों तक पहुंचाने के लिए। आज पहले से ज्यादा सुविधाएं, सुरक्षा, तकनीकी उपलब्ध हैं, जिससे गुणवत्ता भुई बढ़ी है। फिल्म बनने में अब सालों नहीं लगते। संसार भर में हमारी फ़िल्में नाम कमा रही हैं। इस माध्यम से जुड़े लोगों की पूछ-परख विभिन्न देशों में होने लगी है।
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