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, जो खुद आबादी का आधा ही हिस्सा है उसे किसने हक दिया महिलाओं के लिए साल में एक दिन निश्चित करने का ? कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों ? क्या वे कोई विलुप्तप्राय प्रजाति है ? यदि ऐसा है तो पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता ? पर सभी खुश हैं ! विडंबना है कि वे तो और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है और इसे मनाने में तथाकथित सभ्रांत घरानों की महिलाएं बढ-चढ कर हिस्सा लेती हैं।
करने होंगे, खुद ही अपनी लड़ाई लड़नी होगी, खुद को ही सक्षम-सशक्त बनाना होगा ! हाँ, कुछ तो बर्फ टूटी है पर गति बहुत धीमी है, ऐसे में तो वर्षों-वर्ष लग जाएंगे ! क्योंकि यह इतना आसान नहीं है ! हजारों सालों की मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोडने के लिए अद्मय, दुर्धष संकल्प और जीवट की जरूरत है। उन प्रलोभनों को ठुकराने के हौसले की जरूरत है जो आए दिन उन्हें परोस कर अपना मतलब साधा जाता है।
दराज के गांवों-कस्बों में आज भी कुछ ज्यादा नहीं बदला है। आश्चर्य होता है, इस और ध्यान ना देकर इस दिन वे कुछ, अपने आपको प्रबुद्ध, आधुनिक व खुद को महिलाओं का संरक्षक मान बैठी तथाकथित समाज सेविकाएं जो खुद किसी महिला का सरे-आम हक मारे बैठी होती हैं, मीडिया में कवरेज इत्यादि पाने के लिए, आरामदेह वातानुकूलित कक्षों में कुछ ज्यादा ही मुखर हो जाती हैं।
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