Menu
blogid : 25529 postid : 1322667

अंकल, कन्या खिलाओगे ?

kuchhalagsa.blogspot.com
kuchhalagsa.blogspot.com
  • 110 Posts
  • 6 Comments

सुबह-सुबह दरवाजे की घंटी बजी। द्वार खोल कर देखा तो पांच से दस साल की चार-पांच बच्चियां लाल रंग के कपड़े पहने खड़ी थीं। छूटते ही उनमें सबसे बड़ी लड़की ने सपाट आवाज में सवाल दागा, ‘अंकल, कन्या खिलाओगे’?

मुझे कुछ सूझा नहीं, अप्रत्याशित सा था यह सब। अष्टमी के दिन कन्या पूजन होता है। पर वह सब परिचित चेहरे होते हैं, और आज वैसे भी षष्ठी है। फिर सोचा शायद गृह मंत्रालय ने कोई अपना विधेयक पास कर दिया हो इसलिये इन्हें बुलाया हो। अंदर पूछा, तो पता चला कि ऐसी कोई बात नहीं है।

मैं फिर कन्याओं की ओर मुखातिब हुआ और बोला, बेटा आज नहीं, हमारे यहां अष्टमी को पूजा की जाती है .

“अच्छा कितने बजे”? फिर सवाल उछला, जो सुनिश्चित भी कर लेना चाहता था, उस दिन के निमंत्रण को।

मुझसे कुछ कहते नहीं बना, कह दिया, बाद में बताऐंगे।

तब तक बगल वाले घर की घंटी बज चुकी थी।

मैं सोच रहा था कि बड़े-बड़े व्यवसायिक घराने या नेता आदि ही नहीं आम जनता भी चतुर होने लग गयी है। सिर्फ दिमाग होना चाहिये। दुह लो, मौका देखते ही, जहां भी जरा सी गुंजाईश हो। बच ना पाए कोई।

जाहिर है कि ये छोटी-छोटी बच्चियां इतनी चतुर सुजान नहीं हो सकतीं। यह सारा खेल इनके माँ, बाप, परिजनों द्वारा रचा गया है। जोकि दिन भर टी.वी. पर जमाने भर के बच्चों को उल्टी-सीधी हरकतें करते और पैसा कमाते देख, हीन भावना से ग्रसित होते रहते हैं। अपने नौनिहालों को देख कुढते रहते हैं कि लोगों के कुत्ते-बिल्लियाँ भी छोटे पर्दे पर पहुँच कमाई करने लग गए हैं, दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी और हमारे बच्चे घर बैठे सिर्फ रोटियां तोड़े जा रहे हैं।

फिर ऐसे ही किसी कुटिल दिमाग में इन दिनों  बच्चों को घर-घर जीमते देख यह योजना आयी होगी और उसने इसका कापी-राइट कोई और करवाए, इसके पहले ही, दिन देखा ना कुछ और बच्चियों को नहलाया, धुलाया, साफ सुथरे कपड़े पहनवाए, एक वाक्य रटवाया, “अंकल/आंटी, कन्या खिलवाओगे? और इसे अमल में ला दिया।

ऐसे लोगों को पता है कि इन दिनों लोगों की धार्मिक भावनाएं अपने चरम पर होती हैं। फिर बच्ची स्वरुपा देवी को अपने दरवाजे पर देख भला  कौन मना करेगा। सब ठीक रहा तो सप्तमी, अष्टमी और नवमीं तीन दिनों तक बच्चों और हो सकता है कि पूरे घर के खाने का इंतजाम हो जाए। ऊपर से बर्तन, कपड़ा और नगदी अलग से। वैसे भी इन तीन दिनों तक आस्तिक गृहणियां चिंतित रहती हैं, कन्याओं की आपूर्ती को लेकर। जरा सी देर हुई या अघाई कन्या ने खाने से इंकार किया और हो गया अपशकुन। इसलिए होड़ रहती है पहले अपने घर कन्या बुलाने की।


नवरात्रों में,  खास कर अष्टमी के दिन, आस-पडोस की अभिन्न सहेलियों में भी अघोषित युद्ध छिड़ जाता है । सप्तमी की रात से ही कन्याओं की बुकिंग शुरु हो जाती है। फिर भी सबेरे-सबेरे हरकारे दौड़ना शुरु कर देते हैं। गृहणियां परेशान, हलुवा कडाही में लग रहा है पर चिंता इस बात की है कि “पन्नी” अभी तक आई क्यूं नहीं? “खुशी” सामने से आते-आते कहां गायब हो गयी कोरम पूरा नहीं हो पा रहा है।


इधर काम पर जाने वाले हाथ में लोटा, जग लिए खड़े हैं कि देवियां आएं तो उनके चरण पखार कर काम पर जाएं। देर हो रही है, पर आफिस के बास से तो निपटा जा सकता है {वैसे आज के दिन तो वह भी लोटा लिए खड़ा होगा :)} घर के इस बास से कौन पंगा ले, वह भी तब जब बात धर्म की हो।

आज इन “चतुर-सुजान” लोगों ने कितना आसान कर दिया है  सब कुछ।  पूरे देश को राह दिखाई है, घर पहुंच सेवा प्रदान कर।

“जय माता दी”

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh