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काश ! हिंदी फिल्मों को सत्यजीत रे का सहारा मिला होता

kuchhalagsa.blogspot.com
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समय के साथ-साथ इंसान के सोच-विचार, पसंद-नापसंद इत्यादि में फर्क आता चला जाता है। चीजों को गहराई और गंभीरता से देखने समझने की कोशिश होने लगती है। कलकत्ता (तब का) निवास के दौरान बांग्ला, साहित्य और फ़िल्में देखने का काफी सुयोग मिला करता था। वहाँ निर्माता-निर्देशक सत्यजीत रे और नायक उत्तम कुमार के आस-पास भी किसी को नहीं समझा जाता था। पर मुझे सदा ही फिल्म निर्देशक तपन सिन्हा ज्यादा प्रिय थे। कारण यही था कि सत्यजीत जी की फ़िल्में यथार्थवादी होने के कारण कुछ दर्द और धीमापन लिए चलती थीं। शायद उनहोंने भी इसे समझते हुए “गुपि गाईंन बाघा बाईंन” जैसी हल्की-फुल्की फ़िल्में बनाईं।पर तपन सिन्हा की हर फिल्म में संदेश के साथ-साथ मनोरंजन भी खूब होता था। उनकी फिल्मों का हिंदी रूपांतर भी खूब हुआ जैसे काबुलीवाला, अतिथि, आपनजन, सगीना महतो, हाटे बाजारे इत्यादि। उस समय गंभीर फिल्मों के लिए समझदानी भी छोटी ही थी।

 
यह संयोग ही था कि दो मई, सत्यजीत रे की जयंती के तीन-चार दिन पहले ही उनकी पहली फिल्में अपु-त्रयी (Apu-Trilogy) पाथेर पांचाली, अपराजितो और अपुर सोंसार फिर देखीं, दो दिन में एक साथ-लगातार। वर्षों पहले साल-साल भर के अंतराल में देखने और एक साथ देखने में बहुत फर्क था। क्योंकि यह अपु नाम के बालक के बचपन, युवावस्था व बड़े हो दुनियादारी की कहानी है जो एक साथ देखने पर अपनी अलग छाप छोड़ती हैं।  इसीलिए अबकी हफ्ते भर तक दिलो-दिमाग में छाई रहीं। छोटी-छोटी चीज पर उनकी पैनी नजर, हर छोटे-बड़े अदाकार के अभिनय को महत्व, हर टेक पर मजबूत पकड़, समय-काल का पूरा ध्यान और उसके अनुरूप दृश्य व घटना चक्र, सब का समग्र प्रभाव दर्शक को मंत्रमुग्ध कर बांधे रखता है। हिंदी में उन्होंने सिर्फ एक ही फिल्म बनाई थी “शतरंज के खिलाड़ी” जिसका फिल्मों में अपना ही एक स्थान है।

उनकी की सूक्ष्म दृष्टि का उदहारण है, अपराजितो फिल्म का एक सीन, जिसमें अपु अपनी माँ से कहता है कि उसे सुबह की ट्रेन पकड़नी है सो जल्दी उठा देना। सीधी व साधारण सी बात है कि अगले दृश्य में माँ, सुबह हो गयी है, अपु उठो कह कर जगा देती। पर उस गरीबी के मारे परिवार में घडी कहाँ थी ! सुबह कब और कितने बजे ट्रेन है कैसे पता चले ? इसलिए रात को अपु “जंत्री” देख कर माँ को बतलाता है कि सुबह सूर्य 5.45 पर उगेगा, उसके साथ ही मुझे उठा देना ! इसी तरह एक जगह कपडे सुखाने के लिए जो अलगनी लगाई गयी थी वह एकदम नई थी।

 

 

शॉट लेने के पहले मुआइना करते समय रे महोदय की नजर उस पर पड़नी ही थी, तुरंत उसे बदलवा कर जीर्ण-शीर्ण रस्सी का इंतजाम कर शॉट लिया गया। इस बाबत पूछने पर उनका कहना था कि दर्शकों का ध्यान जाए ना जाए पर जिस परिवार को दो जून का भोजन जुटाना भी समस्या हो वह नई अलगनी कहाँ से लाएगा। यह है निर्देशक की खूबी ! उनकी छाप, उनकी पकड़, उनकी खासियत, उनका अपने विषय में ज्ञान, उनका नजरिया उनकी हर फिल्म के एक-एक फ्रेम पर साफ़ दृष्टिगोचर होता है। ऐसे ही उनकी गिनती विश्व के अग्रणी फिल्म निर्देशकों में नहीं होती। जब उन्हें फिल्म संसार को योगदान देने के उपलक्ष्य में ऑस्कर देने की घोषणा हुई तो वे अपनी बिमारी के चलते अस्पताल में होने के कारण वहाँ जाने से मजबूर थे तो ऑस्कर कमिटी ने उन्हें वहीँ आ कर सम्मानित किया और पुरस्कार से नवाजा। ऐसा ऑस्कर के इतिहास में पहली बार हुआ था और यही सत्यजीत रे की विश्व में साख को जाहिर करता है। उनकी 97वीं जयंती पर श्रद्धांजलि !

 

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