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“मेरी बहु इस कलोनि में सब की बहुऒं से ज्यादा अच्छा कमाती है, इत्ती अच्छी नौकरी किसी की बहु को न मिली”, ये शब्द हैं हमारी सोसाइटी की एक सासूमां के। बडा अच्छा लगा एक सास को अपनी बहु पर इतना गर्व करते दॆख। मन हुआ एक बार मिल आऊं उस लड्की से जो सिर्फ़ अपना ही नहीं बल्कि अपनों का भी नाम रोशन कर रही है, तो पहुंच गयी वर्मा आंटी की बहु को अच्छी नौकरी की बधाई देने। काफ़ी इंतजार के बाद वापस अपने घर निराश ही लौट आयी, “बहु तो अभी सो रही है, थक जाती है , बडा काम कर ती है द्फ़्तर में, घर में तो समय दे ही नहीं पती…….”, ऎसे अनेकों वाक्यों के साथ वे मुझे अपने घर के बाहर तक छोड गयीं, या निकाल गयीं, पता नहीं।
एक दिन एक पडोसी के घर छोटी सी पार्टी में, एक छोटी सी, सांवली लड्की को सर पर साडी का पल्ला लिये वर्मा आंटी के पीछे-पीछे आते हुए देखा। उसे देख कर मैं सोच में पड. गयी, क्या यही है वो जो हम सबसे अच्छी नौकरी करती है? फिर एक दिन उन के घर की बाई से पता चला कि घर में वर्मा आंटी एकदम ग्रमीण महिला हैं। बहु तो ’बहु’ की तरह ही रहेगी, आखिर पूरे परिवार की इज्ज्त का भार उस के जिम्मेदार कंधो पर ही तो होता है। पहले वो केवल परीवारिक जिम्मेवारियों तक ही सीमित थी लेकिन मार्ड्न सोसाईटी में अपने परिवार के सभी सद्स्यों के मार्ड्न होने के दम्भ को संतुष्ट करना भी अब उसके कार्यश्रेत्र में ही आता है।
हमारे देश में ऎसी न जाने कितनी बहुएं हैं, घर- बाहर दोह री जिम्मेदारियों को निभाते हुए जीवन पर य्न्त एक आदर्श बहु ब न कर अप नी इछाओं को मार क र जी रही हैं। कहने को वे नौकरी करती हैं, स्वावलम्बी व आत्मनिर्भर हैं, लेकिन सिर्फ़ कहने के लिए। हम आज भी एक विवाहिता को सम्पूर्ण स्वाधिकारों से वंचित रखे हुए हैं। एक लड्की कितनी काबिल है, ये उस के परिवार के सभी सद्स्यों के लिए अभिमान का विषय तो बन गया , किन्तु स्व्यम उस के जीवन को कितना बद्ल सका? निशच्य ही ये पश्न विचारनिय है।
फिर भी आज हम एक सन्तोश जनक स्थिती में हैं, महिलाएं आगे बड. कर अपनी सोच को बद्ल रही हैं, एक पूर्ण विकसित समाज के लिए ये अत्यन्त आवश्य्क है। बद्लाव बाहर से भीतर की ओर हो या
भीतर से बाहर की ओर, ये बद्लाव अछा है और जरुरी भी।
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