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उच्च शिक्षा क्षेत्र में गिरावट जिम्मेदार कौन

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देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयो के कुलपतियो के सम्मलेन में भारत के राष्ट्रपति और प्रधान्मन्त्री दोनों ने उच्च शिक्षा क्षेत्र में गिरावट और प्रतिभा पलायन पर चिंता प्रकट की । साथ ही प्रधानमंत्री ने उच्च शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता पर भी निराशा जाहिर की। उन्होंने हाल ही में आई एक रिपोर्ट का हवाला हुए बताया कि विश्व के शीर्ष 200 शिक्षण संस्थानों में एक भी भारतीय संस्थान जगह नहीं बना सका। गौरतलब है कि पिछले वर्ष अक्टूबर माह में टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2012-13 की सूची जारी की गई थी। इसमें शोध, शिक्षण, और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के आधार पर विश्व के 700 विश्वविद्यालयो में से 200 को चुना गया था। दुर्भाग्य से भारत के एक भी संस्थान को इसमें जगह नहीं मिली जबकि अमेरिका की कुल 76 संस्था इसमें स्थान पाने में सफल रहे। एक समय था जब भारत प्राचीन कालीन शिक्षा का गढ़ माना जाता था। नालंदा जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालय आकर्षण का केंद्र थे । और आज हम हर तरह से क्यों पिछड़ते जा रहे है। हम आर्थिक रूप से निरंतर विकास करते जा रहे है। हमें इस दिशा में बेहतर प्रदर्शन की योजना बनानी होगी। इस दिशा में आने वाली उन सभी समस्याओं का निदान सरकारी इच्छाशक्ति से दूर की जा सकती है। हमें उन कारणों और पद्धतियों की खोज करने की जरुरत है जिससे पश्चिमी देश आज भी निरंतर प्रत्येक क्षेत्र में विकास करते जा रहे है।

पिछले वर्ष टीम लीज के औद्योगिक संस्थानों के सर्वे में यह पाया गया था कि भारत के उच्च शिक्षा प्राप्त युवा वैश्विक परिप्रेक्ष्य में रोजगार पाने के उपयुक्त नहीं हैं. इसके प्रमुख कारणों में गुणवत्ता पूर्ण उच्च शिक्षा का आभाव बताया गया था। वर्तमान की शिक्षा व्यवस्था पर कई तरह से विद्वानों द्वारा प्रश्न उठाये जाते रहे है . इनफ़ोसिस से सेवानिवृत हुए नारायण मूर्ति ने भी भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थानों की शिक्षा व्यवस्था पर प्रश्न उठाया था। आज उच्च शिक्षण संस्थाओं में भी कई तरह की समस्याए पैदा हो रही है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की उच्च शिक्षा सर्वेक्षण की रिपोर्ट पिछले दिनों आई थी। इसमें देश की उच्च शिक्षा संस्थाओं की समस्याओं पर गहन प्रकाश डाला गया था। रिपोर्ट के अनुसार उच्च शिक्षण संस्थान आधारभूत संसाधनों से वंचित है। कई संस्थानों के हास्टल में क्षमता से अधिक छात्र रह रहे है . जैसे बीएचयूं के 7090 क्षमता वाले हॉस्टल में 12957 छात्र रह रहे है . उसी प्रकार दिल्ली विश्वविद्यालय के 1854 क्षमता वाले हॉस्टल में 1922 छात्र . पंजाब विश्वविद्यालय के 3751 क्षमता वाले हॉस्टल में 5869 छात्र रह रहे है . जाहिर है कि इस प्रकार की स्थितियों में रहने से उनकी प्रदर्शन क्षमता पर असर पडेगा . शिक्षा के प्रति बढ़ती जागरूकता के कारण नामांकन दरो में वृद्धि हो रही है . परन्तु उसके अनुरूप सुविधाओं में बढ़ोतरी नहीं हो पा रही है . एक गैर सरकारी सर्वेक्षण में बताया गया है कि उच्च शिक्षा का सकल नामांकन दर 12 प्रतिशत से बढ़कर 13 .2 प्रतिशत हो गया है . सरकार ने इसे 2020 तक बढ़ा कर 30 प्रतिशत तक करने का लक्ष्य निर्धारित किया है .परन्तु इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु व्यापक निवेश का अभाव दिखता है . 2000 – 2001 में सकल घरेलु उत्पाद का केवल 4 .3 प्रतिशत तथा 2008 – 2009 में मात्र 3 .8 प्रतिशत ही शिक्षा क्षेत्र को आवंटित किया गया था . ऐसे में बुनियादी सुविधाओं की बढ़ती मांगो को पूरा करना कठिन है .

आज शिक्षा क्षेत्र के सामने तमाम तरह की चुनौतिया भरी पडी है . जिसके लिए सरकार को दृढ इच्छ शक्ति के साथ प्रयास करने होंगे . भारत के छात्र विज्ञान और गणित में चीन से पिछड़ रहे है , पिछले दिनों इस कथन पर व्यापक चर्चा हुई है . ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनोमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट के द्वारा प्रोग्राम फॉर इंटरनेश्नल स्टुडेंट असेसमेंट में भारतीय छात्रो का बेहद निराशाजनक प्रदर्शन रहा . यह भी उल्लेखनीय है कि देश के अधिक साक्षर प्रदेश हिमाचल प्रदेश व तमिलनाडु के छात्र इसमें प्रतिभागिता किये थे . जिनका 74 देशो में क्रमश 72 वाँ व 73 वाँ स्थान आया। इसका क्या कारण है ?निः संदेह यह हमारी शिक्षा पधतियो में खामियों को उजागर करता है . उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी इसी प्रकार की बेहद निराशाजनक प्रदर्शन देखने में आते है . शोध छात्रो के शोध प्रबंधो में अब नयापन का लोप होते जाना , कट पेस्ट कर शोध प्रबंध बनाना आज विश्वविद्यालय संस्कृति का अंग बनता जा रहा है . इसके अन्दर निहित कारणों की जांच कर दूर करने का प्रयास करना होगा . साथ ही भारत के विश्वविद्यालयो को दिए जा रहे आर्थिक मदद को बढाने की जरुरत है . नवीन प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन देकर तथा उच्च शिक्षण संस्थाओं को आपसी नेटवर्क से जोड़ कर हम बेहतर लाभ प्राप्त कर सकते है . जैसा कि पिछले दिनों राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क की स्थापना के लिए प्रयास हुए थे , अब समय आ गया है कि वैसी नीतियों को जल्द अमल में लाया जाए।
आज भारत को वैश्विक शिक्षा स्थल के रूप में स्थापित किये जाने पर जोर दिया जा रहा है , तथा साथ ही शिक्षा पर्यटन को बढाए जाने पर नीतियों पर अमल किये जाने का सुझाव दिया जा रहा है . परन्तु जब तक भारतीय शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त समस्याओं को ख़त्म नहीं जाता इस तरह की योजनाये अमल में नहीं लाई जा सकती है .

भारतीय शिक्षा व्यवस्था में कई तरह की खामिया है . कई राज्यों में तो 1986 के पुराने पड़ चुके पाठ्यक्रमो को चलाया जाता है . इससे हमें आधुनिक समस्याओं से लड़ने की सीख दी जाती है . कोई भी आसानी से समझ सकता है कि आधुनिक समस्या का सामना इन पुराने पाठ्यक्रमो से नहीं होने वाला है . देश के नीति नियंता इस बात से भली भाँती अवगत है कि शिक्षा को उन्नत स्तर का बना कर ही हम एक स्वस्थ लोकतांत्रिक देश के रूप में प्रतिष्ठित हो सकते है . परन्तु ठोस इच्छा शक्ति का अभाव व कुछ राजनीतिक स्वार्थ के वशीभूत इसमें सुधार के प्रति इच्छाओं का अभाव दीखता है .

शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए कई सरकारी और गैर सरकारी समितियों का गठन हुआ लेकिन कोई बेहतर परिणाम नहीं निकला . इसके लिए सरकार को ही दोष नहीं दिया जा सकता बहुत हद तक आम नागरिक भी इसके लिए जिम्मेदार है . हम अपने बच्चो को प्रारंभिक शिक्षा किस प्रकार के देते है उसके भावी भविष्य का निर्धारण भी इसी से होता है . जिस प्रकार की गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की हम आशा करते है , क्या अपने बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा हम गुणवत्तापूर्ण देते है ? साथ ही सरकार को अपने राजनीतिक स्वार्थो से ऊपर उठ कर देश हित के मुद्दे को प्राथमिकता देनी होगी तभी हम वैश्विक स्तर पर प्रतियोगिता का सामना कर पाएंगे .शिक्षा पर हम जितना खर्च कर रहे है यदि उसकी गुणवत्ता पर ध्यान दे दिया जाये तो हम अपने उद्देश्य में सफल हो जायेंगे और एक विकसित भारत को प्राप्त करने की दिशा में बढ़ पायेंगे .

दूसरी ओर देखें तो देश से बौद्धिक प्रतिभा पलायन भी एक गंभीर चिंता का विषय है। देश के कई महत्वपूर्ण सरकारी संस्थान है, जहां से ऐसे लोग पलायन कर रहे है। संसद के शीतकालीन सत्र में ही रक्षा मंत्री ए के एंटोनी ने राज्य सभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में यह बताये थे की रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन ( डी आर डी ओ ) से पिछले छह वर्षो में करीब 700 वैज्ञानिक इस्तीफा दे चुके है। अकेले वर्ष 2012 में 50 से अधिक वैज्ञानिको ने इस्तीफा दे दिया है। इसका कारण दूसरे संस्थानों में उन्हें बेहतर मौक़ा मिलना है। कारण कई है , जिसमें प्रमुख है सरकार द्वारा इस दिशा में बेहतर पहल और उपाय नहीं करना। इस पलायन को रोकने के लिए अब तक कोई भी कारगर उपाय नहीं किये जा सके है। इसके अलावा देश के अन्दर जो महत्वपूर्ण संस्थान है, उनकी हिफाजत करने में और उनके विकास के प्रति भी शायद सरकार गंभीर नहीं है , यह हमारे लिए एक और चिंतनीय और महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है।

किसी भी लोकतांत्रिक देश की सुरक्षा , उसकी संप्रभुता बनाए रखने तथा सामाजिक – आर्थिक विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रो से सम्बंधित थिंक टैंको का होना बेहद जरुरी है। भारत सहित तमाम देश इस तरह के संस्थानों की स्थापना किये है। परन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है की भारतीय थिंक टैंक वैश्विक रैंकिंग में लगातार पिछड़ते जा रहे है। अमेरिका की पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय द्वारा हाल ही में वर्ष 2012 के लिए जारी एक रैंकिंग सूची में शीर्ष 50 में एक भी भारतीय थिंक टैंक अपना स्थान नहीं बना पाए है। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर सिविल सोसायटी को सूची में 51 वाँ स्थान मिला है। इसके अलावा शीर्ष 150 में 5 अन्य भारतीय संस्थानों को जगह मिला है। ये संस्थान है, इंस्टिट्यूट फॉर डिफेन्स स्टडीज एंड एनालिसिस , इन्डियन काउन्सिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेश्नल इकोनोमिक रिलेशंस , द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट , आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन और डेवलपमेंट अल्टरनेटिव। इस रैंकिंग प्रक्रिया में विश्वविद्यालय ने 182 देशो के 6603 थिंक टैंको को शामिल किया था। भारत के थिंक टैंको की कम रैंकिंग कई सवाल खडी करती है।

देश के समग्र विकास की दशा दिशा में इन थिंक टैंको की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विधायिका और कार्यपालिका दोनों के लिए इसके अभाव में कार्य करना असम्भव है। एक तरह से देखा जाये तो यह प्रशासन की आधुनिक वास्तविक व अप्रत्यक्ष मंत्रिपरिषद है। इसमें कमजोरी आने का मतलब है पूरी प्रशासनिक व्यवस्था में कमजोरी आना। लिहाजा सरकार इसके प्रति बेहतर प्रयास करती है। परन्तु वैश्विक स्तर पर इसकी प्रतिस्पर्धात्मकता अवश्य कमजोर हो रही है। इसके पीछे कई कारण है। सबसे पहला और महत्वपूर्ण कारण तो यही है की भारत बेहतर प्रतिभा को इन संस्थानों के प्रति आकर्षित नहीं कर पाता। या तो काबिल लोगो को यहाँ बेहतर और प्रतिस्पर्धी सुविधा नहीं मिल पाती , दूसरे इन्हें अपेक्षाकृत कम पारिश्रमिक मिलता है। साथ ही यह कोई बेहतर कैरियर विकल्प के तौर पर उभर नहीं पा रहा है। देश की प्रतिभा अपने कार्यो में अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप के कारण भी इसके प्रति आकर्षित होने की बजाय दूर होते जाते है। विदेशो में ऐसी प्रतिभाओं को तमाम सहूलियते दी जाती है। हम किसी प्रतिभावान से केवल देश प्रेम के कारण यहाँ रुकने की अपेक्षा नहीं कर सकते। हमें उनकी जरुरत और काबिलियत के मुताबिक़ प्रोत्साहन व पुरस्कार देना ही होगा।

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