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प्रशासनिक शिथिलता से कमजोर हुए भारतीय थिंक टैंक

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देश से प्रतिभा पलायन पर बीते काफी समय से बहस जारी है। देश से इस पलायन को रोकने के लिए अब तक कोई भी कारगर उपाय नहीं किये जा सके है। इसके अलावा देश के अन्दर जो महत्वपूर्ण संस्थान है, उनकी हिफाजत करने में और उनके विकास के प्रति भी शायद सरकार गंभीर नहीं है , यह हमारे लिए एक और चिंतनीय और महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। किसी भी लोकतांत्रिक देश की सुरक्षा , उसकी संप्रभुता बनाए रखने तथा सामाजिक – आर्थिक विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रो से सम्बंधित थिंक टैंको का होना बेहद जरुरी है। भारत सहित तमाम देश इस तरह के संस्थानों की स्थापना किये है। परन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है की भारतीय थिंक टैंक वैश्विक रैंकिंग में लगातार पिछड़ते जा रहे है। अमेरिका की पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय द्वारा हाल ही में वर्ष 2012 के लिए जारी एक रैंकिंग सूची में शीर्ष 50 में एक भी भारतीय थिंक टैंक अपना स्थान नहीं बना पाए है। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर सिविल सोसायटी को सूची में 51 वाँ स्थान मिला है। इसके अलावा शीर्ष 150 में 5 अन्य भारतीय संस्थानों को जगह मिला है। ये संस्थान है, इंस्टिट्यूट फॉर डिफेन्स स्टडीज एंड एनालिसिस , इन्डियन काउन्सिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेश्नल इकोनोमिक रिलेशंस , द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट , आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन और डेवलपमेंट अल्टरनेटिव। इस रैंकिंग प्रक्रिया में विश्वविद्यालय ने 182 देशो के 6603 थिंक टैंको को शामिल किया था। भारत के थिंक टैंको की कम रैंकिंग कई सवाल खडी करती है।

देश के समग्र विकास की दशा दिशा में इन थिंक टैंको की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विधायिका और कार्यपालिका दोनों के लिए इसके अभाव में कार्य करना असम्भव है। एक तरह से देखा जाये तो यह प्रशासन की आधुनिक वास्तविक व अप्रत्यक्ष मंत्रिपरिषद है। इसमें कमजोरी आने का मतलब है पूरी प्रशासनिक व्यवस्था में कमजोरी आना। लिहाजा सरकार इसके प्रति बेहतर प्रयास करती है। परन्तु वैश्विक स्तर पर इसकी प्रतिस्पर्धात्मकता अवश्य कमजोर हो रही है। इसके पीछे कई कारण है। सबसे पहला और महत्वपूर्ण कारण तो यही है की भारत बेहतर प्रतिभा को इन संस्थानों के प्रति आकर्षित नहीं कर पाता। या तो काबिल लोगो को यहाँ बेहतर और प्रतिस्पर्धी सुविधा नहीं मिल पाती , दूसरे इन्हें अपेक्षाकृत कम पारिश्रमिक मिलता है। साथ ही यह कोई बेहतर कैरियर विकल्प के तौर पर उभर नहीं पा रहा है। देश की प्रतिभा अपने कार्यो में अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप के कारण भी इसके प्रति आकर्षित होने की बजाय दूर होते जाते है। विदेशो में ऐसी प्रतिभाओं को तमाम सहूलियते दी जाती है। हम किसी प्रतिभावान से केवल देश प्रेम के कारण यहाँ रुकने की अपेक्षा नहीं कर सकते। हमें उनकी जरुरत और काबिलियत के मुताबिक़ प्रोत्साहन व पुरस्कार देना ही होगा।

दूसरी और यह केवल थिंक टैंको की समस्या नहीं है . देश के कई महत्वपूर्ण सरकारी संस्थान है, जहां से ऐसे लोग पलायन कर रहे है। संसद के शीतकालीन सत्र में ही रक्षा मंत्री ए के एंटोनी ने राज्य सभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में यह बताये थे की रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन ( डी आर डी ओ ) से पिछले छह वर्षो में करीब 700 वैज्ञानिक इस्तीफा दे चुके है। अकेले वर्ष 2012 में 50 से अधिक वैज्ञानिको ने इस्तीफा दे दिया है। इसका कारण दूसरे संस्थानों में उन्हें बेहतर मौक़ा मिलना है। कारण कई है , जिसमें प्रमुख है सरकार द्वारा इस दिशा में बेहतर पहल और उपाय नहीं करना। अमेरिकी थिंक टैंक ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूटशन को रैंकिंग में प्रथम स्थान मिला है। ब्रिटेन के चतहाम हाउस को दूसरा और अमेरिका के ही कार्नेजी इंडोमेंट फॉर इंटरनेश्नल पीस को तीसरा स्थान मिला। यह कोई संयोग या तरफदारी से नहीं हुआ है। वास्तव में ये थिंक टैंक वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे है। इन देशो में न केवल थिंक टैंक उत्कृष्ट है बल्कि वहाँ उच्च शिक्षण संस्थान भी विश्विक स्तर पर उत्कृष्ट कहे जा सकते है। यदि ऐसा नही होता तो भारतीय बच्चे क्यों अमेरिका , ब्रिटेन के विश्वविख्यात संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने नहीं जाते।

पिछले वर्ष अक्टूबर माह में टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2012-13 की सूची जारी की गई थी। इसमें शोध, शिक्षण, और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के आधार पर विश्व के 700 विश्वविद्यालयो में से 200 को चुना गया था। दुर्भाग्य से भारत के एक भी संस्थान को इसमें जगह नहीं मिली जबकि अमेरिका की कुल 76 संस्था इसमें स्थान पाने में सफल रहे। एक समय था जब भारत प्राचीन कालीन शिक्षा का गढ़ माना जाता था। नालंदा जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालय आकर्षण का केंद्र रहा था। और आज हम हर तरह से क्यों पिछड़ते जा रहे है। यह समय इस सन्दर्भ में इर्ष्या या शोक करने का नहीं है। हम आर्थिक रूप से निरंतर विकास करते जा रहे है। हमें इस दिशा में बेहतर प्रदर्शन की योजना बनानी होगी। इस दिशा में आने वाली उन सभी समस्याओं का निदान सरकारी इच्छाशक्ति से दूर की जा सकती है। हमें उन कारणों और पद्धतियों की खोज करने की जरुरत है जिससे पश्चिमी देश आज भी निरंतर प्रत्येक क्षेत्र में विकास करते जा रहे है। इस सन्दर्भ में देखें तो अंग्रेजो की प्रशासनिक समझदारी की प्रशंसा करनी होगी . भारतीय लोगो पर शासन करने के पूर्व वे पूरी सामाजिक व्यवस्था , संरचना , धार्मिक-सामाजिक न्याय पद्धति को समझे . हिन्दी , संस्कृत व अन्य स्थानीय भाषाओ के प्राचीन साहित्यों , धर्म ग्रंथो का अनुवाद कराया . नृजाति विवरण , मानव विज्ञान के आंकड़े के लिए उनकी प्रशासनिक फ़ौज में राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियो,के अलावा तमाम मानवविज्ञानी ,नृजातिशास्त्री, समाजशास्त्री मौजूद थे। कहने का तात्पर्य है की वे सभी क्षेत्रो को सामान महत्व देते थे। जबकि आज भी भारत में इस तरह की प्रवृति का अभाव दिखता है।

आज देश में जो भी नीतियाँ लाइ जाती है उनमे समाज को समझने के प्रति अभाव दिखता है। स्वतंत्रता के बाद से आज तक कोई ऐसी सरकार नहीं बनी है जिसने सामाजिक नीति पर गभीरता दिखाई हो। देश में अब तक जितनी भी नीतियाँ , योजना कार्यक्रम बने इनमे आज तक एक वृहत सामाजिक नीति के लिए किसी समाजशास्त्री को शामिल नहीं किया गया, जो समाज को अन्य लोगो की अपेक्षा बेहतर समझता है। आज पूरी व्यवस्था मार्केट इकोनोमी की तरफ झुकी है। किसी भी समाज को सिर्फ आर्थिक नजरिये से नहीं देखा और समझा जा सकता है। हाँ यह जरुरी है की प्रत्येक क्षेत्र में इस तरह के थिंक टैंक हो जो इसमें विशेषज्ञ हो, किन्तु जो सम्पूर्ण समाज पर अपना व्यापक प्रभाव रखने वाला हो उसकी कीमत पर किसी विशेष संस्था को प्रमुखता देना इस तरह की समस्याओं को बढाता है।

कैश सब्सिडी, ऍफ़ डी आई, ऋण माफी जैसी वोट बैंक की योजना के प्रति सरकार अपनी पूरी ताकत से संसद में आती है, वही किसी भी मुद्दे पर बहस का सर्वथा अभाव दिखता है . संसद में योजना के सामाजिक , सांस्कृतिक आयामों को शामिल ही नहीं किया जाता . एक बहुविविध सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व मूल्यों वाले राष्ट्र के लिए हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का विस्तार केवल आर्थिक आयामों तक सीमित नही होना चाहिए . सरकार की यह रूचि रही है की समाज में कभी गरीबी ना मिटे, अशिक्षा ना मिटे ताकि इस मुद्दे पर लोगो का वोट लिया जा सके . यही कारण है की आजादी के 65 वर्षो के बावजूद हमारे यहाँ अशिक्षा , गरीबी , भूखमरी , बेरोजगारी जसी समास्याएं मुंह बाए खडी है। वास्तव में सरकार कभी चाहती ही नहीं की समास्या का अंत हो ताकि वोट बैंक ज़िंदा रहें . और यही कारन है की थिंक टैंको को भी अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप से जूझना पड़ता है। इससे उनकी कार्य क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है और वे बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाते। दूसरी और हमारे शैक्षणिक संस्थान भी आज इस प्रकार की कई चुनौतियों से घिरे हुए है। यह समय हमारे आत्मचिंतन का होना चाहिए की क्यों हम वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहे है।

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