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भाषा, एक वैचारिक दृष्टिकोण !

मेरे विचार से...
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भाषा क्या है… क्या ये फैशन है या फिर विचारों को व्यक्त करने की जागतिक विधि!

आइये, विचारों का मंथन कुछ इस प्रकार करते है की इस प्राचीन विधा का सही अर्थों में कुछ बोध हो सके|

मित्रों, मेरे विचारों में, भाषा सूचना का वह सशक्त माध्यम है जिसे, एक व्यकि को दूसरे व्यक्ति से संपर्क करने, भावनाओं को व्यक्त करने तथा आवश्यकताओं को अभिव्यक्त करने के लिए नितांत आवश्यक माना जाता है|

कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि कहा जाये की भाषा जीवन का वो मूल आधार है जिसने आदि मानव को वो मनुष्य बनाया है जिसे हम आज देखते है|

मित्रों, यदि भाषा को हम एक मूल और अनिवार्य तत्व के रूप में देखते है तो फिर उसका प्रयोग एक फैशन के तौर पे करना, अपनी प्रतीकात्मक पहचान के लिए उसका उपयोग करना, और तो और स्वतः की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए इसका प्रयोग करना कितना तर्कसंगत है?

पूरे विश्व में भाषा ठीक उसी प्रकार विकसित हुई है जिस तरह से लाखों करोड़ों वर्षों में एक महाद्वीप विभाजित हो के भिन्न भिन्न उपमहाद्वीपों में विकसित हुआ है|

भाषा की व्युत्पत्ति का मूल कारण भी आवश्यकताओं की पूर्ति, जीवन के प्रति दर्शन और जीवन यापन की समस्याओं का समाधान खोजना ही है| परन्तु विडम्बना ऐसी है की आज इसे हम व्यक्तिगत श्रेष्ठता से जोड़कर भी देखते है|

चलिए ज्यादा दूर नहीं जाते, चीन या फिर जापान जैसे अनेक देशो में लोग स्वदेशी भाषा में संवाद को प्राथमिकता देते है, दैनिक व्यवहारों का आदान प्रदान भी वह अपनी स्वदेशी भाषा में ही करते है, और तो और आज वो जिस तकनीक का प्रयोग करते है वह भी कहीँ न कहीँ उनकी स्वदेशी भाषा के इर्द गिर्द ही विकसित की गयी है|

और हम भारतीय, जो विश्व की प्राचीनतम भाषा, जो कि कई अन्य भाषाओं के विकास का मूल है, के प्रति कई अवसरों पर क्यों सम्मान व्यक्त नहीं कर पाते? और क्यों लोगों के बीच इसके प्रोयोग में स्वयं को कमतर समझते है?

माना की अन्य भाषाओँ का ज्ञान होना निसंदेह एक कला है जो एक व्यक्ति विशेष को एक सर्व परिस्थिति सक्षम प्राणी बनाती है| परंतु मेरे विचार से इसका प्रयोग परिस्थितिनुसार वहीँ उचित होता है जहा इसकी आवश्यकता सर्वाधिक हो|

उदाहरणार्थ, चार पढ़े लिखे भारतीय पेशेवर आज यदि आपस में संवाद करते है तो उनका आपस मे ही अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करना एक तरह से बैमानी सा लगता है| जरा सोचिये, उनमे से कौन अंग्रेज है जो हिंदी नहीं जनता और कौन पढ़ा लिखा भारतीय है जिसे अंग्रेजी नहीं समझती!

परंतु फिर भी कई अवसरों पर हम भाषा का सही चुनाव नहीं कर पाते और एक दूसरे को ही अंग्रेजी के क्लिष्ट व्याकरणों से प्रभावित करने का प्रयत्न करते रहते है|

हास्स्यास्पद तो तब लगता है जब एक हिंदी बोलने और समझने वाला व्यक्ति दूसरे हिंदी बोलने और समझने वाले व्यक्ति से तो अंग्रेजी मे बात करता है परंतु वास्तव में वहीँ व्यक्ति बगलें झांकता सा भी दीखता है जब किसी अंग्रेज से पाला पड़ता है या फिर किसी विदेशी से बात कर रहा होता है| यहाँ क्यों वह अपनी कला का प्रदर्शन करने से चूक जाता है?

अब मान लीजिये, यदि कुछ मित्र आपस मे वार्तालाप कर रहे हो और यकायक उनमे से एक व्यक्ति अपनी प्रादेशिक भाषा में बोलने लगे जो आप नहीं समझते तो आप क्या कहेंगे ? अनायास ही आप कह उठेंगे, अरे भाई कुछ ऐसा बोल की समझ में आये! तो भाई, बात जब एक दूसरे को समझाने की ही है तो क्यों न फिर अपनी मात्र भाषा में ही समझाया जाये|

अंग्रेजी वहां बोलिये न जहाँ उसकी आवश्यकता हो और प्रादेशिक भाषा वहां बोलिये जहाँ सभी उसे समझ सके और वार्ता मे सक्रिय हिस्सा ले सकें!

सही अर्थों में यह भाषा के प्रति हमारे दोहरे मापदंडो को ही दर्शाता है, न की उन्नति या भाषा के प्रति लगाव को|

मित्रों, इस लेख के माध्यम से मेरा आप सभी से विनम्र निवेदन है की, यथा संभव हिंदी भाषा का सम्मान करें, हिंदी बोलने में स्वयं को सम्मानित महसूस करे, और अपने दैनिक जीवन मे इसका निसंकोच प्रयोग करें| क्योकि यह एक भाषा मात्र नहीं है अपितु एक प्राचीन धरोहर है जो अनेक अन्य भाषाओं का भी प्राचीन स्रोत है और जो, देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी, एक भारतीय को दूसरे भारतीय से जोड़ कर रखती है|

जय हिन्द, जय भारत |

गौरव दिलीप कवठेकर

Gaurav.kavathekar@gmail.com

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