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देखते देखते मेरे आँगन का वट/
चार पत्तों से बढ़कर सघन हो गया /
मै वहीं का वहीँ, उसमे लाखों विहग /
उसका आगोश सारा गगन हो गया|
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उसके शाखों में थी भोर संगीत मय/
पक्षियों के सुरीले स्वरों का उदय /
माँ के आँचल में शिशु की ज्यों किलकारियां /
झूमे शीतल पवन लेके बलिहारियां |
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उसकी जड़ ने गिरा कर के दीवार को/
अपनी शक्ति का मुझको इशारा किया/
मै विवश ,वो प्रगति पथ पे संघर्ष रत /
मूक तरु ने मुझे ही नाकारा कहा |
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मैंने भी फिर प्रयत्नों की पतवार से /
अपने जीवन का उद्देश्य तय कर लिया /
उसको प्रेरक समझ आया उसके निकट/
ये बताने कि क्या क्या फतह कर लिया |
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किन्तु मेरी नज़र पर बज्र गिर गया /
मैंने ढूंढा वहां, मेरा वट था कहाँ /
उसको लोगों ने कटवा के टुकड़े किया
और ईंधन का सामान तय कर लिया |
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नीड़ लाखों वहां पक्षियों के पड़े /
अपनी बरबादियों की ब्यथा कह रहे /
मेरे द्रग रो पड़े, ऐसा क्यों हो गया/
मूक तरु तू स्वयं को बचा ना सका |
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देखते देखते वक्त बीता बहुत /
उसके नन्हें तनय हो गए अंकुरित /
फिर से होगा जवां ,फिर से होगा गठित /
धन्य है आसमाँ ,धन्य आंगन का वट/
धन्य है आसमाँ ,धन्य आँगन का वट |
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निर्मला सिंह गौर
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