Menu
blogid : 16670 postid : 650557

आधुनिक विवाह की मर्यादा—निर्मला सिंह गौर का आलेख

भोर की प्रतीक्षा में ...
भोर की प्रतीक्षा में ...
  • 54 Posts
  • 872 Comments

देश को आज़ाद हुए ६५ वर्ष हो गए,इस बीच बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं| जिस भारत की संस्कृति को विदेशी लोग सेंकडों वर्ष शासन कर के नहीं मिटा सके वो आज़ादी के बाद स्वम् हमारे अपने हांथों टूट रही है| विवाह के पवित्र संस्कार की बात करें तो जीवन के सोलह संस्कारो में से एक संस्कार विवाह भी है| इस संस्कार की महत्ता घटने से,एक तरफ़ तो समाज के आमूल–चूल ढांचे में कम्पन है, दूसरी तरफ़ देश की लगभग ६०प्रतिशत युवापीढ़ी,(जो देश के विकास में अहम भूमिका अदा कर सकती है)तनावग्रस्त है|
विवाह की सम्पूर्ण रीति नीति में बदलाव आ गया|सादगी का स्थान तड़क भड़क ने ले लिया| दहेज की सूरत विकराल हो गयी,नतीजा यह हुआ कि कहीं कहीं बहुएं दहेज़ की बलिवेदी पर बलिदान की जाने लगीं लगी या प्रताड़ित होने लगीं| उसका परिणाम यह हुआ नारी शिक्षा को अनिवार्य किया गया| लडकियों ने मेडिकल,टेक्नीकल,आर्ट, और साइंस हर क्षेत्र में झंडे गाड़ दिए| माता पिता को भी बेटी पे गर्व होने लगा|
विवाह की कानूनी उम्र भले ही १८ वर्ष हो पर बेटी की शिक्षा पूरी होने में २१-२२ वर्ष की उम्र तो हो ही जाती है और फिर ४-५ वर्ष लडकियाँ आत्मनिर्भर हो कर भी रहना चाहतीं हैं, तो आजकल विवाह की औसत उम्र २६ से २८ वर्ष की हो गयी है|| बेटी के पिता ने बेटी के लिए दहेज़ जुटाने से बेहतर उसे पढ़ा लिखा कर आत्मनिर्भर बनाना उचित समझा, उससे उसे २फायदे दिखे, पहला बेटी बुरे वक्त में कभी भी परआश्रित नहीं होगी, दूसरा विवाह के लिए थोडा बहुत धन भी जोड़ लेगी| और नारी पुरुष से दिमागी तौर पर कहीं से कम तो थी नहीं, तो शिक्षा के क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम करते देर नहीं लगी|
अब सवाल यह है कि विवाह की प्राचीन मर्यादा,जहाँ ७ फेरों की कसमे पूरी शिद्दत के साथ निभाई जातीं थीं, जहाँ पत्नी अपने पति को अपना सर्वस्व समझती थी, और पति भी अपनी पत्नी को घर की लक्ष्मी का सम्मान देता था| और जहाँ मायके वालों का हस्तक्षेप कतई नहीं होता था| पत्र व्यवहार से कुशल क्षेम पूछी जाती थी,जिसमे कम से कम १०-१२ दिन का वक्त लग ही जाता था, पत्र लिखते वक्त विवेक जाग्रत रहता था तो सकारात्मक संदेश ही आदान-प्रदान होते थे, माता पिता बेटी को लिवाने के लिए या शादी विवाह या किसी उत्सव पर पूर्व निमंत्रण पाकर जाते थे| विवाह के समय माता पिता और घर की बड़ी महिलाएं बेटी को ये बात समझा देतीं थीं कि अब से उसका घर उसका ससुराल है,उसे उनके दिल में अपना स्थान बनाना है|
वो मर्यादा अब घटती जा रही है| अब तो आधुनिक विवाह की मर्यादा को आधुनिक विवाह की सीमायें कहना अधिक उपयुक्त होगा क्यों कि मर्यादा शब्द की भी जो मर्यादा होती है वो भी यहाँ शर्माने लगती है| दोषी दोनों हैं| पूरा का पूरा समीकरण बिगड़ गया है स्त्री कमाने योग्य है तो क्यों नहीं कमाये और जब वो बराबरी का पैसा कमा रही है तो क्यों ७ फेरों की कसमो में बंधे| मातापिता ने शिक्षा पर खर्च करते वक्त जब बेटी और बेटे में भेद नहीं रखा और एक लायक लड़की सोंपी है तो अब बेटी से रोज़ सम्पर्क में क्यों न रहे| फिर रोज़ की छोटी छोटी बातें भी मायके की चौखट पर दस्तक देने लगीं| मोबाईल के प्रयोग ने आग में घी का काम किया| पुरुष की कैफिअत तो पहले जैसी ही है, उसका पुरुष ईगो क्यों समझौता करे| नतीजा टकराव की स्थिति हर रोज़ ही घटित होने लगी|पति पत्नी में मतभेद और लड़ाई झगड़े होना कोई अपवाद नहीं है,चूँकि दोनों अलग प्रष्टभूमि से आते हैं तो ज़ाहिर सी बात है,कभी मतभेद भी होते हैं और पहले भी होते थे| पर विवाह की मजबूत डोर तोड़ कर बाहर निकलने का ख्याल तक नहीं आता था |आजकल इस पबित्र बंधन को तोड़ने और फटाफट आज़ाद होने की ज़िद्दोजह्त चल जाती है|अदालतों में विच्छेद के मामलों की फाइलों के अम्बार लगे हैं,और वकील खूब फल-फूल रहे हैं|जिनके मुकद्दमे चल रहे हैं वो लुट रहे हैं और तनाब ग्रस्त तो हैं ही की पता नहीं ऊंट किस करवट बैठे| उनके युवा बच्चे देश के बारे में तब सोचें जब खुद की उलझने ख़त्म हो,तनावग्रस्त व्यक्ति न तो काम में एकाग्र हो सकता न ड्राइविंग सुरक्षित कर सकता, नतीजतन दुर्घटनाएं बढ़ गयीं हैं| निष्कर्ष यह की स्थिति चिंताजनक है|
नारी को प्रेम,शक्ति,मातृत्व एवं सहनशीलता का स्वरूप माना गया है, नारी को धरती के समकक्ष माना जाता है क्यों कि उसमे भी बीज को अपने गर्भ में प्रतिस्थापित कर पाने और पैदा करके जीवन देने और पोषण करने की क्षमता ईश्वर ने प्रदान की है|लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती तीनो देवियाँ नारी के अन्दर विद्धमान हैं और इसीलिये ‘नारी सर्वत्र पूज्यते’ जैसे शब्द मुखरित हुए हैं| परन्तु जब पुरुष उसको उसका वो सम्मान नहीं देता जिसकी वो हक़दार है, तो विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हो जाती है| नारी हमेशा प्रतिक्रियात्मक(रिएक्टिव) स्वभाव की होती है चूँकि वो पुरुष से कम शक्तिशाली होती है तो उसमे असुरक्षा की भावना कूट कूट कर भरी होती है अर्थात वाताबरण की प्रतिकूलता में अपनी सारी शक्ति समेट कर खड़ी हो जाती है| पुरुष उसकी दादागिरी बर्दाश्त नहीं कर पाता, और उसक पुरुषत्व जाग जाता है और वो अपने लहज़े में विरोध करता है| परिणाम ये होता है की नारी कानून के सहारे अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर देती है, प्राप्त आंकड़ो के अनुसार विवाह विच्छेद के मामलें दिन ब दिन बढ़ते जा रहे हैं| महानगरों की संस्कृति तो और भी विकृत रूप धारण कर रही है|युवक -युवती कुछ दिन लिव -इन रिलेशन में साथ रहते हैं |अगर उनकी केमिस्ट्री मिल गयी तो बाद में विवाह कर लेंगे और नहीं मिली तो दोनों अपनी अपनी राह पकड़ लेते हैं| देश की सभ्यता में ये परिवर्तन पिछले १ दशक से ही देखने में आया है| और लिव इन रिलेशन से निकल कर अन्यत्र विवाह सफल भी नहीं हो सकता| देश की संस्क्रती और विवाह की मर्यादा दोनों ही खंडित हो रहे हैं| जो विवाह एक संस्कार था वो मात्र एक उत्सब बन गया है| अगर पारम्परिक रीति से विवाह हो और अपनी क्षमता के मुताबिक खर्च भी हो तो भी ६५ प्रतिशत मामलों में १५ से २० माह में उसके टूटने की नौबत आ जाती है, फिर चाहे आग सिर्फ दो लोगों (परिवारों) के मध्य ही जले पर सुलगती रहती है| आजकल ये भी देखने में आरहा है कि अधिकतर वही प्रेम विवाह सफल होते हैं जिनको माता पिता मान्यता नहीं देते|क्यों की माता पिता का हस्तक्षेप नहीं रहता|इसका मतलब यह नहीं है की मोबाइल पर कुशलक्षेम न पूछी जाये, पर लडकी के मातापिता को यह ध्यान रहे की शादी करके बेटी को उन्होंने हास्टल में नहीं भेजा है, वो अपने घर गयी है उसे वहां रचने-बसने दें|अगर संयुक्त परिवार में विवाह हुआ है तो आपके दिन में कई बार फोन अवश्य ही अवांछनीय होंगे| अर्थात संयम से काम लें|
लड़के के माता पिता को भी बहू को बेटी का दर्ज़ा देना चाहिए,आखिर वो अपने माता पिता,परिवार,घर, मित्र-बंधू ,हवा पानी एवं उस वायुमंडल तक छोड़ कर अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ आपके परिवार में प्रवेश कर रही है,अपने मन में लाखों हसीन सपने ले कर अपने पति के साथ जीवन बिताने के लिए,उसे प्यार दें, उसके मन को समझें|दो प्यार भरे शब्दों ने जो असर है वो महंगे उपहारों में नहीं है,
मत सहेजो मोतियों को सीपियों से छीन कर
आँख में छलके हुए आंसू की कीमत जान लो
मत तलाशो खुशियों को बाज़ार की दूकान में
अधर पर खिलती हुई मुस्कान को पहचान लो |
ज़रूरत सिर्फ सहनशीलता एवं विवेकशीलता की है| बच्चे अपने माता पिता से ही सीखते हैं| अर्थात ये उनका दाइत्व है की अपने बच्चों में ये गुण विकसित करें और विवाहोपरांत उनकी दिनचर्या (जीवन) में हस्तक्षेप न करें|साथ ही पति-पत्नी भी आपसी झगडे बेड रूम की दीवारों के बाहर न आने दें उससे एक तो पिछली पीढ़ी (माँ-बाप) तनाब ग्रस्त नहीं होगी दूसरे अगली पीढ़ी का   कोमल मस्तिष्क भी लड़ाई झगड़ों की कुटिल स्मृतियों की काली छाया से दूर रहेगा| …….
निर्मलासिंह गौर

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh